Saturday 4 July 2015

मुहूर्त, मुहूर्त निर्धारण तथा विशिष्ट मुहूर्त में निष्पादित किये जाने वाले कार्य


                       भारतीय जन मानस प्रत्येक कार्य, कार्य के अनुकूल शुभ मुहूर्त की गणना करवाकर कार्य को मुहुर्तानुसार निष्पादित करता है ताकि कार्य सफल एवं फलदायी हो. मुहूर्तो की संकल्पना एवं व्यवस्था भारतीय संस्कृति की विशिष्टता है. कार्यो को मुहूर्त के अनुसार सम्पादित करने पर सफलता निश्चित है, ऐसा विश्वास किया जाता है. आज भी प्रत्येक शुभ कार्य के लिए उचित मुहूर्त निकलवाया जाता है और उसी के अनुरूप कार्य किया जाता है.
            मुहूर्त की महत्ता के बारे में महान भारतीय गणितज्ञ  भाष्कराचार्य जिन्होंने गणित की पुस्तक लीलावती लिखी, के जीवन से सम्बंधित घटना द्रष्टव्य है. भास्कराचार्य ने अपनी पुत्री लीलावाती की शादी का मुहूर्त पहले से गणना करके बता दिया था और आगाह भी कर दिया था की यदि निर्धारित मुहूर्त में लीलावती की शादी नहीं हुयी तो फिर उसकी शादी कभी नहीं होगी. नियत तिथि पर लीलावती एवं उसका भावी वर शुभ मुहूर्त की प्रतीक्षा करने लगे. घटी यंत्र – जो एक छोटी कटोरी जिसकी तली में एक छोटा सा छेद होता है, पानी पर तैरा दी जाती है और यह कटोरी, एक घटी यानि २४ मिनट में डूब जाती है – से मुहूर्त की गणना प्रारंभ की गयी. लीलावती भी वर के साथ घटी यंत्र के पास ही बैठी थी. दुर्भाग्य से अनजाने में लीलावती के गले के हार का एक छोटा सा मोती टूटकर घटी यंत्र में गिर गया जिसकी जानकारी किसी को न हो सकी. परिणामस्वरूप घटी यंत्र निर्धारित समय पर नहीं डूबा और शादी का मुहूर्त निकल गया. कुछ समय पश्चात वहां पर एक सर्प प्रकट हुआ जिसने वर को डंस लिया और उसकी मृत्यु हो गयी. लीलावती को पुनः कोई वर नहीं मिला और वे आजीवन अविवाहित रही. भाष्कराचार्य इस घटना से बहुत दुखी हुए और उन्होंने लीलावती को समर्पित करते हुए गणित की पुस्तक ‘लीलावती’ की रचना की. मुहूर्त का महत्व कितना है इस घटना से समझा जा सकता है.
            मुहूर्त की गणना, उसका नामकरण एवं उस मुहूर्त में क्या कार्य सम्पादित करने चाहिए, इसका उल्लेख ‘अथर्ववेदीय ज्योतिषम्  – काश्यप – प्रजापति – संवादेन प्रोक्तम्’  में किया गया है. बारह अंगुल की सीधी लकड़ी को समतल भूमि पर खडी गाढ़कर उसकी छाया की माप के अनुसार मुहूर्त निर्धारण किया जाता है. तीस त्रुटिओं का एक मुहूर्त होता है.


त्रुटीनान्तु भवेत् त्रिशन्मुहूर्तस्य प्रयोजनम्  |
द्वादशांगुलमुच्छेषम् तस्य छाया प्रमाणतः ||


            नीचे दी गयी तालिका में लकड़ी की छाया की माप एवं माप के अनुरूप मुहूर्त तथा उस मुहूर्त में किये जाने वाले कार्यो का उल्लेख किया गया है.
क्रमांक
लकड़ी की छाया की माप  (अंगुल में)
मुहूर्त
मुहूर्त में किये जाने वाले कार्य
1
96 – 61
रौद्र
सभी प्रकार के मारणादि प्रयोग, भयंकर एवं क्रूर कार्य.
2
61 – 13
श्वेत
नवीन वस्त्र धारण करना, स्नान करना, बगीचा लगाना, ग्राम बसना, कृषि कार्यो का आरंभ करना एवं इसी प्रकार के अन्य सोचे हुए कार्यो को प्रारंभ करना.
3
13 – 7
मैत्र
मित्रता, संधि एवं मेल मिलाप संबंधी कार्य.
4
7 – 6
सारभट
शत्रुओं के लिए अभिचार कर्म अर्थात मारणादि  प्रयोग अथवा अपने तथा अपने मित्रो के शत्रुओं को नष्ट करने हेतु कार्य.
5
6 – 5
सावित्र
सभी प्रकार के यज्ञ, विवाह,चूडा कर्म, उपनयन आदि संस्कार एवं अन्य देव कार्य.
6
5 – 4
वैराज
राजाओ के पराक्रम के कार्य, शस्त्रों का निर्माण, वस्त्रों का दान आदि.
7
4 – 3
विश्वावसु
द्विजाति  के स्वाध्याय संबंधी सभी कार्य एवं अर्थ सिद्धि के कार्य.
8
3 – 0
अभिजित
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र आदि सभी वर्णों के मेल मिलाप से सम्बंधित कार्य. यह मुहूर्त सब प्रकार की कामनाओं को पूर्ण करने वाला है तथा इस मुहूर्त में धन संग्रह करने वाले एवं किसी प्रकार की यात्रा करने वाले को अवश्य सफलता मिलती है.
9
0 – 3
रोहिण
इस मुहूर्त में लगाए गए वृक्ष, बेल तथा लताये निरोग होती है और उन पर सर्वदा ही, सुन्दर फल एवं फूल लगे रहते है.
11
3 – 4
बल
इस मुहूर्त में राजाओं को स्वयं ही सेनाओ का संचालन करना चाहिए क्योकि इस मुहूर्त में आक्रमण करने पर विजय अवश्य प्राप्त होती है.
11
4 – 5
विजय
इस मुहूर्त में चढ़ाई करने से विजय अवश्य प्राप्त होती है और स्वस्ति वाचन तथा शांति पाठ आदि मंगलाचार कार्यो के लिए भी यह मुहूर्त प्रशस्त है.
12
5 – 6
नैरऋत
शत्रुओं के राष्ट्रों पर आक्रमण करके उनकी सम्पूर्ण सेना को नष्ट किया जा सकता है और पराजित शत्रु की संपत्ति भी इसी मुहूर्त में आक्रमण करने से प्राप्त होती है.
13
6 – 12
वारुण
जल में उत्पन्न होने वाले धान्य, गेंहूं, जौ, धान, कमल आदि के बीज बोना शुभ होता है.
14
12 – 60
सौम्य
सब शुभ कार्य सफल होते है.
15
60 – 96
भग
स्त्रिओं के विशेषकर कन्यायों के सौभाग्य कार्य अर्थात पाणिग्रहण संस्कार के लिए यह मुहूर्त सर्वथा उपयुक्त है.
                       
      इस प्रकार सूर्योदय से सूर्यास्त पर्यन्त पंद्रह मुहूर्त बतलाये गए है तथा रात्रि में भी दिन के क्रम से पंद्रह मुहूर्त होते है जिनकी गणना शंकु छाया के अनुपात से की जाती है अर्थात चौबीस घंटे के एक दिन में कुल तीस मुहूर्त होते है.

            कार्य के अनुरूप मुहूर्त, लग्न एवं तिथि की गणना करवाकर कार्य करने से कार्य अवश्य सफल एवं फलदायी होता है  

Monday 29 June 2015

संस्कृत भाषा की वैज्ञानिकता

संस्कृत भारोपीय भाषा समूहों  की जननी है। यह विश्व की प्राचीनतम, सर्वाधिक समृद्ध, सशक्त एवं वैज्ञानिक भाषा है। इसकी लिपि देवनागरी कहलाती है। इस लिपि की वर्णमाला में सात स्वर एवं तैतीस व्यंजन है। अ, इ, उ, ए, ओ,  एवं लृ स्वर है। तैतीस व्यंजनों को निम्न प्रकार से वगीकृत किया गया है :-
‘क’ वर्ग – क, ख, ग, घ, ड.
‘च’ वर्ग – च, छ, ज, झ, ञ
‘ट’ वर्ग – ट, ठ, ड, ढ, ण
‘त’ वर्ग – त, थ, द, ध, न
‘प’ वर्ग – प, फ, ब, भ, म
ईषत् स्पृष्ट – य, र, ल, व
ईषत् विवृत – श, ष, स, ह
उपरोक्त के अतिरिक्त अनुस्वार -- और विसर्ग : तथा अनेक संयुक्त व्यंजन जैसे क्त, क्ष, ज्ञ, त्र, द्ध, श्र, ह्म, ह्ल, ह्न, ह्र, ह्व, ह्य, स्त्र, द्म, थ्व, दृग आदि  प्रचलित है।
संस्कृत भाषा के उच्चारण का तरीका इसकी वैज्ञानिकता का आधार है। इसमे निम्न पांच उच्चारण स्थान है :-
कंठ – स्वर ‘अ’ एवं क वर्ग के व्यंजनों का उच्चारण कंठ से होता है।
तालु – स्वर ‘इ’, च वर्ग, य तथा श  का उच्चारण स्थान तालु है।
मूर्धा – स्वर ‘’, ट वर्ग, र तथा ष का उच्चारण स्थान मूर्धा है।
दन्त – स्वर ‘लृ’, त वर्ग, ल तथा स का उच्चारण स्थान दन्त है।
ओष्ठ – स्वर ‘उ’, प वर्ग  तथा व का उच्चारण स्थान ओष्ठ है।
संस्कृत भाषा के विभिन्न स्वरों एवं व्यंजनों के विशिष्ट उच्चारण स्थान होने के साथ प्रत्येक स्वर एवं व्यंजन का उच्चारण व्यक्ति के सात ऊर्जा चक्रों में से एक या एक से अधिक चक्रों को निम्न प्रकार से प्रभावित करके उन्हें क्रियाशील – उर्जीकृत करता है :-
·   मूलाधार चक्र – स्वर ‘अ’ एवं क वर्ग का उच्चारण मूलाधार चक्र पर प्रभाव डाल कर उसे क्रियाशील एवं सक्रिय करता है।
·        स्वर ‘इ’ तथा च वर्ग का उच्चारण स्वाधिष्ठान चक्र को उर्जीकृत  करता है।
·        स्वर  ‘’ तथा ट वर्ग का उच्चारण मणिपूरक चक्र को सक्रिय एवं उर्जीकृत करता है।
·       स्वर  ‘लृ’ तथा त वर्ग का उच्चारण अनाहत चक्र को प्रभावित करके उसे उर्जीकृत एवं सक्रिय करता है।
·        स्वर ‘उ’ तथा प वर्ग का उच्चारण विशुद्धि चक्र को प्रभावित करके उसे सक्रिय करता है।
·    ईषत्  स्पृष्ट  वर्ग का उच्चारण मुख्य रूप से आज्ञा चक्र एवं अन्य चक्रों को सक्रियता प्रदान करता  है।
·     ईषत् विवृत वर्ग का उच्चारण मुख्य रूप से सहस्त्राधार चक्र एवं अन्य चक्रों को सक्रिय करता है।
इस प्रकार देवनागरी लिपि के  प्रत्येक स्वर एवं व्यंजन का उच्चारण व्यक्ति के किसी न किसी उर्जा चक्र को सक्रिय करके व्यक्ति की चेतना के स्तर में अभिवृद्धि करता है। वस्तुतः संस्कृत भाषा का प्रत्येक शब्द इस प्रकार से संरचित (design) किया गया है कि उसके स्वर एवं व्यंजनों के मिश्रण (combination) का उच्चारण करने पर वह हमारे विशिष्ट ऊर्जा चक्रों को प्रभावित करे। प्रत्येक शब्द स्वर एवं व्यंजनों की विशिष्ट संरचना है जिसका प्रभाव व्यक्ति की चेतना पर स्पष्ट परिलक्षित होता है। इसीलिये कहा गया है की व्यक्ति को शुद्ध उच्चारण के साथ-साथ बहुत सोच-समझ कर बोलना चाहिए। शब्दों में शक्ति होती है जिसका दुरुपयोय एवं सदुपयोग स्वयं पर एवं दूसरे पर प्रभाव डालता है। शब्दों के प्रयोग से ही व्यक्ति का स्वभाव, आचरण, व्यवहार एवं व्यक्तित्व निर्धारित होता है।  
उदाहरणार्थ जब ‘राम’ शब्द का उच्चारण किया जाता है है तो हमारा अनाहत चक्र जिसे ह्रदय चक्र भी कहते है सक्रिय होकर उर्जीकृत होता है। ‘कृष्ण’ का उच्चारण मणिपूरक चक्र – नाभि चक्र को सक्रिय करता है। ‘सोह्म’ का उच्चारण दोनों ‘अनाहत’ एवं ‘मणिपूरक’ चक्रों को सक्रिय करता है।
वैदिक मंत्रो को हमारे मनीषियों ने इसी आधार पर विकसित किया है। प्रत्येक मन्त्र स्वर एवं व्यंजनों की एक विशिष्ट संरचना है। इनका निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार शुद्ध उच्चारण ऊर्जा चक्रों को सक्रिय करने के साथ साथ मष्तिष्क की चेतना को उच्चीकृत करता है। उच्चीकृत चेतना के साथ व्यक्ति विशिष्टता प्राप्त कर लेता है और उसका कहा हुआ अटल होने के साथ-साथ अवश्यम्भावी होता है। शायद आशीर्वाद एवं श्राप देने का आधार भी यही है। संस्कृत भाषा की वैज्ञानिकता एवं सार्थकता इस तरह स्वयं सिद्ध है।
भारतीय शास्त्रीय संगीत के सातों स्वर हमारे शरीर के सातों उर्जा चक्रों से जुड़े हुए है। प्रत्येक का उच्चारण सम्बंधित उर्जा चक्र को क्रियाशील करता है। शास्त्रीय राग इस प्रकार से विकसित किये गए हैं जिससे उनका उच्चारण / गायन विशिष्ट उर्जा चक्रों को सक्रिय करके चेतना के स्तर को उच्चीकृत करे। प्रत्येक राग मनुष्य की चेतना को विशिष्ट प्रकार से उच्चीकृत करने का सूत्र (formula) है। इनका सही अभ्यास व्यक्ति को असीमित ऊर्जावान बना देता है।
   उपर्युक्त विवेचना से स्पष्ट है कि संस्कृत भाषा का  प्रत्येक शब्द इस प्रकार सार्थक रूप से विकसित किया गया है कि इसका उच्चारण मनुष्य की चेतना को स्वतः एक नयी स्फूर्ति प्रदान करता रहे।  यही इस भाषा की वैज्ञानिकता का मूल आधार है.

Friday 26 June 2015

योग चिकित्सा - आर्थराइटिस एवं मधुमेह

              योग चिकित्सा पद्दति औषधिविहीन प्राकृतिक विधि से शरीर को सबल बना कर रोगों का उपचार करने की प्रक्रिया है. इस पद्दति में योग, प्राकृतिक चिकित्सा एवं योगिक आहार का समावेशन है.
            योग के आठ अंग है. परन्तु चिकित्सा के लिए यम, नियम, आसन, प्राणायाम एवं ध्यान का मुख्य रूप से प्रयोग किया जाता है. यम एवं नियम के पालन से सायको सोमेटिक डिसऑर्डर जो मनुष्य के ८०% रोगों का कारण होते है ठीक किये जा सकते है. आसनों के द्वारा शरीर के विभिन्न अंगो को सक्रिय करके शारीरिक प्रक्रियायों को गतिशील किया जाता है. प्राणायाम से शरीर को संतुलित वायु तत्व प्राप्त होता है जिससे शरीर की विभिन्न प्रक्रियाये संतुलित होकर कार्य करने लगती है. ध्यान से मस्तिष्क एवं चित्त शांत होकर शरीर की रोगों से लड़ने की क्षमता में वृद्धि करता है. योगिक षट्कर्म की नेति, धोती एवं बसती का प्रयोग शारीरिक शोधन में किया जाता है.
            प्राकृतिक चिकित्सा में पंच तत्वों यथा जल, वायु, अग्नि, पृथ्वी एवं आकाश तत्वों का प्रयोग करके शरीर को रोगमुक्त किया जाता है. इस चिकित्सा पद्दति का मुख्य सिद्दांत यह है कि जिन तत्वों से शरीर निर्मित है, उपचार केवल उन्ही तत्वों से किया जा सकता है. कटी स्नान, मेहन स्नान, पेट पर मिट्टी की पट्टी, पेट की ठंडी गरम सिकाई, पैर का गरम स्नान, घर्षण स्नान, गर्म पानी का स्नान, कमर की गीली पट्टी, छाती की गीली पट्टी, धूप स्नान, उपवास आदि प्राकृतिक चिकित्सा के उपचार की पद्दतियां है. रोगी की आयु, लिंग, शारीरिक क्षमता, रोग की प्रकृति एवं अवधी आदि प्राकृतिक चिकित्सा पद्दतियो के प्रयोग का निर्धारण करती है. ये प्रक्रियाये शरीर में संचित रोग कारक विजातीय द्रव्यों को शरीर से बाहर निकालती है.
             योगिक आहार का तात्पर्य यह है कि कब खाया जाय, क्या खाया जाय, कितना खाया जाय, कैसे खाया जाय और आवश्यकता को दृष्टिगत रखते हुए क्या विशिष्ट खाया जाय. प्रायः व्यक्ति ७०% से ८०% अनावश्यक खाता है जिसको पचाने में शरीर की बहुमूल्य ऊर्जा का दुरुपयोग होता है. कम खा कर इस ऊर्जा को बचाया जा सकता है जो बदले में शारीरिक क्रियायों को मजबूती प्रदान करेगी.
                              मधुमेह एवं आर्थराइटिस प्रायः अप्राकृतिक जीवन पद्दतियो को अपनाए जाने के कारण मनुष्य को हो जाती है. मनुष्य के बीमार पड़ने के मुख्य कारण है :- जरूरत से ज्यादा खाना, गलत वस्तुए खाना, बगैर भूख के खाना, बेमेल वस्तुए खाना, बगैर चबाये खाना, आवश्यकतानुसार पानी न पीना, आवश्यक श्रम न करना, अथवा जरूरत से ज्यादा और गलत तरीके से श्रम करना, खुली हवा और धूप का पूरा इस्तेमाल न करना, ठीक से न नहाना, गंदी हवा एवं गंदे वातावरण में रहना और पूरी लम्बी साँस न लेना व्यर्थ की चिंताओं एवं कार्यो में मन को परेशान रखना, शारीरिक एवं मानसिक शक्तिओं का अपव्यय करना, नशा एवं बुरी आदतों को अपनाए रखना, आदि. ये सभी बाते जीवन पद्दतियो से सम्बंधित है और रोग का निवारण वगैर इन आदतों के सुधारे संभव नहीं है.
                                कोई भी रोग एक दिन में न तो उत्पन्न होता है और न ही एक दिन में ठीक हो सकता है. वस्तुतः गंभीर रोग वर्षो तक गलत जीवन पद्धतियो को अपनाए रहने, गलत दिनचर्या एवं शारीरिक मानसिक तनाव के कारण धीरे धीरे उत्पन्न होते है. अतः इनका उपचार भी धीरे धीरे चलता है. योग उपचार में ‘यथा शक्ति’ एवं ‘शनैः – शनैः’ के सिद्धांत का प्रयोग करते हुए धैर्य के साथ शरीर को रोगमुक्त किया जाता है. उपचार में चिकित्सक के स्थान पर रोगी का स्वयं का योगदान अधिक होता है. इस पद्धति में उपचार के लिए रोगी को स्वयं मानसिक रूप से तत्पर होकर अनुशासन के साथ उपचार विधि का पालन करने के लिए तैयार रहना पड़ता है.

                                मधुमेह एवं आर्थराइटिस – दोनों बीमारियाँ आपस में सम्बंधित होकर एक दूसरे को उत्पन्न करती है अर्थात मधुमेह के पश्चात आर्थराइटिस अथवा आर्थराइटिस के पश्चात मधुमेह होना स्वाभाविक है, ऐसा चिकित्सीय शोधो से सिद्ध किया जा चुका है. दोनों बीमारीओं के लिए अभी तक ऐसी कोई दवाई आविष्कृत नहीं हो पायी है जो यह दावा करे की वह इन रोगों को जड़ से समाप्त कर देगी. दोनों बीमारियाँ जीवन पद्धति से सम्बंधित है अतः जीवन पद्धतिओं में परिवर्तन करके ही इनका उपचार किया जा सकता है. इसके लिए व्यक्ति को थोडा संयमित, अनुशासित, समयबद्ध एवं व्यवस्थित होना पड़ता है. मानसिक दृढ़ता एवं निरंतर योग उपचार तथा परिवर्तित प्राकृतिक जीवन शैली को अपनाए रखने से इन रोगों से न केवल मुक्ति पायी जा सकती है बल्कि इनकी पुनरावृत्ति भी समाप्त हो सकती है.       

Sunday 21 June 2015

वर्तमान में योग की प्रासंगिकता

         परम आदरणीय महामहिम श्री राज्यपाल महोदय, परम आदरणीय श्री कुलपति महोदय एवं मंचासीन महानुभाव, पधारे हुए समस्त विद्वत-जन, योग-प्रेमी एवं समारोह के आयोजकगण,   सर्वप्रथम मैं माँ सरस्वती को नमन करते हुए आप सभी को अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस की बधाई देता हूँ। आज का दिन सम्पूर्ण विश्व एवं मानवता के लिए महत्वपूर्ण है क्योंकि सम्पूर्ण विश्व आज इस बात की चर्चा कर रहा है कि योग क्या है और वर्तमान में इसकी क्या आवश्यकता और उपयोगिता है। मैं मुख्य अतिथि का आभारी हूँ कि उन्होंने अपना बहुमूल्य समय देकर हम सभी को उपकृत किया है।
          आज के संसार में मनुष्य, जीव – जंतु यहाँ तक कि प्रकृति भी उद्वेलित है, अशांत है। प्रायः किसी को भी शांति नहीं है। विश्व पटल पर काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार के वशीभूत इंसान हिंसक हो उठा है। मार-काट, चोरी-डकैती, हेरा-फेरी, व्यभिचार अब आम बात हो गयी है। धैर्य, दया, करुणा, क्षमा जैसी सदाचार की बातें मानो भुला दी गयी हैं। मुट्ठी भर विद्वान और जागरूक लोग छटपटा रहे हैं - शांति की खोज में। संसार को यदि इसका समाधान चाहिए तो वह केवल ‘वसुधैव कुटुम्बकम्‌’ का संदेश देने वाला भारत ही दे सकता है। हम हवन के समय समग्र जड़ – चेतन, पृथ्वी – आकाश आदि सभी की शांति की प्रार्थना करते है, यहाँ तक कि मृत्यु पर जीव की आत्मा की शांति के लिए हर व्यक्ति के हृदय से प्रार्थना स्फुटित होती है। इस विषम परिस्थिति में भारत का ‘योग दर्शन’ संसार को शांति और सद्‍भाव प्रदान करने की शक्ति रखता है। 
          विषय पर सीधे आते हुए- ‘योग क्या है’ जिसकी चर्चा सम्पूर्ण विश्व में हो रही है, यह जानना आवश्यक है। कुछ लोग शरीर को विभिन्न प्रकार से तोड़ने-मरोड़ने को योग कहते है। कुछ लोग श्वास-प्रश्वास को बहुत देर तक रोकने को योग कहते है। कुछ लोग आँखे बंद करके स्थिर बैठने को योग कहते है। यदि ऐसा होता तो सभी जिमनास्ट जो शरीर को कुशलतापूर्वक तोड़-मरोड़ लेते हैं, उनसे अच्छा योगी कौन हो सकता है? लम्बे समय तक श्वास को रोकना ही यदि योग होता तो जितने भी नाविक और तैराक हैं वे सब योगी हो गए होते। मात्र आंखे बंद करके बैठने से योगी बन जाना सबसे आसान तरीका होता। वस्तुतः वर्तमान में योग को बहुत हल्के तरीके से प्रस्तुत किया जा रहा है। विशेष तौर पर अमेरिका और यूरोप में जहाँ इसे कतिपय आसन, प्राणायाम एवं शारीरिक व्यायाम (Physical Exercise) तक ही सीमित कर दिया गया है; जबकि योग भारतीय ‘षडदर्शन’ जो कि वेदों के अंग कहे गए है, उनमें से एक अंग है, दर्शन है। योग-दर्शन के अतिरिक्त अन्य पांच वेदांग हैं – सांख्य,  न्याय, वैशेषिक, पूर्व मीमांसा एवं उत्तर मीमांसा। इन दर्शनों पर ही मूल भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता आधारित है। योग भी अन्य वेदांगो की भांति अत्यंत विस्तृत, तार्किक, सारगर्भित एवं उत्कृष्ट चेतना का निचोड़ है।
          योग का शाब्दिक अर्थ है – जुड़ाव – दो या दो से अधिक वस्तुओं का, या अवधारणाओं का आपस में मिलना या जुड़ना। योग वास्तव में शरीर, मन एवं आत्मा का जुड़ाव है unification of body, mind and soul.  यह जुड़ाव चित्त की वृत्तियों के निरोध से संभव है – योगश्चित्तवृत्तिनिरोध: - अर्थात चित्त की वृत्तिओं का निरोध ही योग है – unification of body, mind and soul by cessation of movements in consciousness. चित्त की पांच अवस्थाये होती है तथा वृत्तियाँ भी पांच प्रकार की होती है। इस प्रकार चित्त की वृत्तिओं का निरोध करके हम मन शरीर एवं आत्मा का एकीकरण कर लेते है जो योग कहलाता है।
          चित्त की इन वृत्तिओं का निरोध किस प्रकार से हो इसके लिए महर्षि पतंजलि ने आठ पदों appendages – यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारण, ध्यान व समाधि- वाले अष्टांग योग का प्रतिपादन किया। मैं योग के इन आठ अंगों की संक्षिप्त चर्चा करना चाहूँगा:-
पहला, यम – यम पांच होते है – सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह एवं ब्रह्मचर्य।
दूसरा, नियम – नियम भी पांच होते है – शौच, संतोष, स्वाध्याय, तप एवं ईश्वर प्रणिधान।
तीसरा, आसन – आसनों की संख्या संसार में पाए जाने वाले जीव जंतुओं के बराबर है, परन्तु 84 आसन मुख्य है और उनमें 32 आसनों का प्रतिदिन नियमित अभ्यास करना चाहिए। प्रत्येक आसन शरीर के विशिष्ट भाग पर stress डालता है; परिणामस्वरूप चित्त उसी स्थान पर स्वत: पहुँच जाता है। जहाँ चित्त होता है प्राण वायु के माध्यम से प्राण भी स्वत: जाता है और वह स्थान/अंग उर्जीकृत हो जाता है।
चौथा, प्राणायाम – यह आठ प्रकार का होता है जिससे प्राणों को आयाम dimension – प्राप्त होता है। यह आयाम आसनों के एवं श्वास  प्रश्वास  के विशिष्ट संयोग से संभव है।
पाँचवां, प्रत्याहार – इन्द्रियो को बाह्य संसार से विमुक्त करके विषयों से निवृत्त व निग्रह करना प्रत्याहार है।
छठवां, धारणा – इसमे चित्त को किसी एक ध्येय स्थान में बांध देना, लगा देना अथवा स्थिर करना होता है। धारणा आध्यात्मिक, आधिदैविक एवं आधिभौतिक – तीन प्रकार की होती है।
सातवां, ध्यान – इष्ट देव अथवा किसी वस्तु विशेष में निरंतर चिंतन को या उस पर चित्त को स्थिर करने को अथवा धारणा क्षेत्र में चित्त वृत्ति को एकाग्र करना ध्यान है।
आठवां, समाधि – ध्यान ही समाधि हो जाता है जिस समय केवल ध्येय स्वरुप का ही भान रहता है और अपने स्वरुप के भान का अभाव सा रहता है। 

Surya Pranam at Indira Gandhi International Airport New Delhi


चित्त की वृत्तियों के निरोध के सम्बन्ध में जानने के पश्चात मन, शरीर और आत्मा के अंतर्सम्बंधों (equation) के बारे में जानना आवश्यक है। अद्वैत दर्शन के प्रतिपादक आदि शंकराचार्य ने जब “ब्रह्म सत्यं जगन्‍मिथ्या, जीवो ब्रह्मैव नापरः” के सिद्दान्त को प्रतिपादित किया तो उनका विरोध शुरू हो गया। यह कहा गया कि जिसे हम देख नहीं सकते तथा जो अनुभूत नहीं है उसे कैसे सत्य माना जाय; तथा जो सामने दिखाई दे रहा है उसे असत्य मानने का आधार क्या है। इसको तो उल्टा होना चाहिए। शंकर ने कहा कि जगत में विद्यमान समस्त जड़-चेतन के कण-कण, यहाँ तक कि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में प्रति क्षण परिवर्तन हो रहा है, यह अनित्य है इसीलिये इसको असत्य कहा गया है। ब्रह्म ही ध्रुव सत्य है, अटल है, अपरिवर्तनशील है, जैसा कल था, वैसा ही आज भी है और भविष्य में भी रहेगा। हमारी जीवात्मा इस ब्रह्म से अलग नहीं है। जीव और ब्रह्म में कोई द्वैत नहीं है। ये अद्वैत हैं। बहुत से पाश्चात्य एवं अमेरिकी दर्शन शास्त्रियो ने अद्वैतवाद को गलत माना।  बहुत से भारतीय चिंतको ने भी पाश्चात्य मत का समर्थन किया क्योकि उनकी धारणा के अनुसार पाश्चात्य मत गलत हो ही नहीं सकता। मानो उन्होंने जो कहा वह ध्रुव सत्य है।
हम अपनी इन्द्रियो से जो कुछ भी देखते है अनुभूत करते है या ब्रहमांड में जो कुछ स्थूल दिख रहा है वह मूल रूप से कतिपय आधारभूत ऊर्जा कण - Fundamental particles – electron, proton, neutron, neutrino, fermions, muons, quarks, mesons, photons, positron, boson, antimatter –  आदि है जो निरंतर ऊर्जा का उत्सर्जन करते रहते है। ये सभी कण एक दूसरे से सम्बद्ध रहते हुए एक व्यवस्था के तहत परस्पर गतिशील होकर ऊर्जा उत्सर्जित करते है तथा ये कण कभी भी आपस में स्पर्श नहीं करते। यदि इनका आपस में किसी कारण से स्पर्श हो जाय तो बहुत बड़ी मात्रा में ऊर्जा उत्पन्न होती है और इन कणों का अस्तित्व समाप्त हो जाता है। इन कणों का अस्तित्व तभी तक है जब तक ये परस्पर सम्बद्ध होकर वगैर स्पर्श किये गतिशील रह कर ऊर्जा उत्सर्जित करते रहते है। आपस में स्पर्श से इनकी गतिशीलता समाप्त हो जाती है और उर्जा उत्पन्न करके ये स्वयं भी नष्ट हो जाते है। इस प्रकार से ब्रह्‍मांड में जितनी भी स्थूल वस्तुएँ हैं वे सभी मात्र कतिपय ऊर्जा उत्सर्जित करने वाले energy particles है और ये particles कब अपना स्वरुप परिवर्तित करके तरंगो में बदल जाय अभी तक कोई नहीं जान पाया। इसलिए ऊर्जा – तरंग शाश्वत है, मैटरmatter नहीं। ब्रह्म यानि ऊर्जा ही अंतिम सत्य है। जगत – यानि कि द्रव्य (matter) – जो कभी भी अपना स्वरुप बदल कर तरंग अथवा उर्जा में बदल सकता है- कैसे सत्य हो सकता है, अर्थात्‍ मिथ्या है।   
हमारा शरीर भी इसका अपवाद नहीं है और यह जैसा दिखता है वैसा नहीं है। यह भी कतिपय व्यवस्थित, आधारभूत, बगैर स्पर्श किये गतिशील रहने वाले कणों का समूह मात्र है जो निरंतर ऊर्जा उत्सर्जित करते रहते हैं। हम ब्रह्माण्ड की किसी भी वस्तु को स्पर्श नहीं कर सकते बल्कि बगैर स्पर्श किये हुए उस पर तैरते रहते है। जिस क्षण हम वास्तविक रूप से किसी वस्तु को स्पर्श करेंगे तो दोनों के आपस के कण मिलकर अत्यधिक ऊर्जा उत्पन्न करके नष्ट हो जायेंगे। इस प्रकार हमारा भी विनाश हो जाएगा। इस प्रकार आधारभूत कणों से बना हमारा शरीर सदैव ऊर्जा तरंगो का उत्सर्जन करता रहता है।
हमारा मन, मस्तिष्क की उपज है; जहाँ पर प्रतिक्षण जाने कितनी रासायनिक क्रियायें होने से ऊर्जा तरंगे उत्पन्न होती रहती हैं। आज का आधुनिक विज्ञान भी इसकी खोज नहीं कर पाया है। मस्तिष्क और मन ऊर्जा तरंगो को उत्सर्जित करके ही कार्य करते है। आत्मा जो स्वयं में ऊर्जा है, उसके बारे में भारतीय मनीषियो ने जितना कहा है उतना किसी अन्य विषय पर नहीं कहा गया है। आत्मा को परमात्मा अर्थात्‍ ब्रह्‍म – जो स्वयं में ऊर्जा है – के एक भाग के रूप में प्रतिपादित किया गया है।
इस प्रकार से तीनो ऊर्जाओं का यदि एकीकरण नहीं होगा तो ये ऊर्जाये आपस में एक दूसरे को काट कर स्वयं नष्ट हो जायेंगी। इनका आपस में लयबद्ध  होकर एकीकृत unified - होना आवश्यक है अन्यथा ये ऊर्जा तरंगे आपस में एक दूसरे को काट कर नष्ट हो जायेगी। संगीत में सभी वाद्यों के स्वर एक लय  में होते है। सभी में एक प्रकार से unification होता है। यदि ये वाद्ययंत्र अलग-अलग स्वर निकालने लगे तो संगीत के स्थान पर शोर उत्पन्न होगा। इसी प्रकार शरीर, मन एवं आत्मा द्वारा उत्सर्जित ऊर्जा तरंगो में भी लयबद्धता आवश्यक है। यह लयबद्धता unification - केवल योग द्वारा ही संभव है। संक्षेप में योग यही है।
अभी तक की चर्चा से स्पष्ट है कि हम ब्रह्मांड में सभी पिंडो के साथ लयबद्ध होकर ही अस्तित्व में है। जितनी अधिक लय उतने अधिक लयबद्ध, व्यवस्थित एवं उर्जावान हम। ऊर्जा जिसके बिना एक पत्ता तक नहीं हिल सकता।
वर्तमान युग विरोधाभासों का युग है। अपनी तथाकथित आधुनिकता, अंधाधुंध वैज्ञानिकता एवं मूल्यहीन विचारों से मानवता आज जितनी पीड़ित है उतनी कभी नहीं रही। हमारी ऐसी जीवन शैली ने अनेक मानसिक-शारीरिक विकार (psycho-somatic disorders) उत्पन्न किये है जिनका कोई सफल उपचार आधुनिक विज्ञान खोज ही नहीं पाया है। आधुनिक विश्व की समस्यायों का मुख्य आधार व्यक्ति का लोभ, लालच, क्रोध, काम, शक्ति, मद, अहंकार आदि है। ये सब ही क्लेश यानि कष्ट का कारक है। योग के ‘यम’ और ‘नियम’ को अंगीकृत करने से इन मनोविकारो से मुक्ति मिल सकती है; अर्थात इन क्लेशो का उपचार योग के माध्यम से ही संभव है। योग के मात्र प्रारंभिक अभ्यास से ही इन वृत्तियों पर नियंत्रण पाया जा सकता है। अपने मनीषियो ने आदिकाल से ही योग को जीवन पद्धति बनाये जाने का निर्देश इसीलिये दिया था ताकि हम सब अपने शरीर, मन एवं आत्मा के साथ लयबद्ध होकर समस्त ब्रह्मांड के साथ एकीकृत (unified) हो सके।
योग जीवन पद्धति इतनी प्रभावी है कि इसको कितनी ही कम गंभीरता से अपनाया जाय परिणाम स्वतः आने लगते है। इसी कारण पश्चिम में इसका जो कथित अभ्यास कराया जा रहा है – जो मात्र शारीरिक व्यायाम (physical exercise) से अधिक कुछ नहीं है, उससे ही वहां का समाज काफी हद तक प्रभावित है। वस्तुतः योग निरंतर चौबीसों घंटे अपनायी जाने वाली जीवन पद्धति है। जब कोई यह कहता है की वह प्रतिदिन एक से डेढ़ घंटे योग करते है तो वह मात्र physical exercise की बात करता है। योग का तात्पर्य तो अष्टांग योग से है। क्या ‘यम’ एवं ‘नियम’ का अनुपालन मात्र कुछ घंटो के लिए ही किया जाना चाहिए? प्राणायाम और आसन तो हमारे चौबीसों घंटे के साथी है। हम सदैव किसी न किसी आसन पर ही बैठते है जिसके अनुसार प्राण संचारित होकर एक विशिष्ट आयाम को प्राप्त करते है। हमारा कोई भी कार्य ध्यान के बगैर संपन्न हो ही नहीं सकता। कार्य में यदि ध्यान नहीं तो कार्य का सम्पादन असंभव। इस प्रकार सम्पूर्ण योग हमारी दिनचर्या में परिलक्षित होता है और यह एक सम्पूर्ण व्यवस्थित दिनचर्या का सिद्धांत है। जितना अधिक हम इन सिद्धांतो के प्रति प्रतिबद्ध होते है उतनी ही कुशलता से हम अपनी दिनचर्या को संचालित करते है।
वर्तमान में जितने भी मनो-कायिक रोग (psycho-somatic ailments) हैं; जैसे- मधुमेह, गठिया, रक्तचाप, हृदयरोग, फेफ़ड़ा, किडनी, स्टोन, लकवा, कुष्ठ, एलर्जी इत्यादि (diabetes, arthritis, blood pressure, cardiac trouble, pulmonary troubles, kidney troubles, stones in gall bladder and kidney, epilepsy, allergies etc.) वे सभी योग दिनचर्या का अनुपालन न करने के कारण ही उत्पन्न होते है और इनका उपचार केवल शरीर (soma) को उपचारित करके किया जा रहा है जबकि इनका वास्तविक उपचार मन आधारित होना चाहिए। मन का इलाज योग आधारित पद्धति के अतिरिक्त कहीं है ही नहीं। अतः आधुनिक सभ्यता के कष्टों का निवारण योग से ही संभव है।
योग जीवन पद्धति में प्राकृतिक चिकित्सा एवं योग आहार भी शामिल होता है। प्राकृतिक चिकित्सा से शारीरिक क्षतियों का उपचार पंचभूतों के माध्यम से किया जाता है। यह आधारभूत चिकित्सा पद्धति इतनी प्रभावी है की इससे असाध्य से असाध्य रोग भी ठीक होते देखे गए है। यह पद्धति शरीर के किसी अंग का इलाज न करके सम्पूर्ण शरीर को इकाई मानते हुए सम्पूर्ण शरीर का इलाज करती है। इसका मुख्य सिद्धांत यह है की शरीर जिन तत्वों से बना है उसी से उसको उपचारित किय जा सकता है। पंचभूत से बने शरीर का उपचार भी पंचभूत से ही होगा। इसी प्रकार हमारा आहार हमारे शरीर, चित्त एवं वृत्तियों पर सीधा प्रभाव डालता है। कहा भी गया है की ‘जैसा खाओ अन्न वैसा होगा मन’ यानि हमारा भोजन हमारे मन पे सीधा प्रभाव डालता है। सात्विक भोजन सात्विक विचार, तामसिक भोजन तामसी विचार। यदि विचार तामसी होगे तो जीवन स्वतः क्लेशयुक्त होगा।
 योग एक आत्म-उन्नति की जीवन पद्धति है। हमारे पास इसे अपनाने के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प नहीं है क्योकि आत्म-उन्नयन self improvement  एक सतत प्रक्रिया है। यदि हम उन्नयन (improve) नहीं करेगे तो अवनमन (degradation)  होगा क्योकि स्थायी कुछ भी नहीं है। आज इसी गिरावट के कारण मानव इतने कष्ट, दुःख, पीड़ा, शोक, संत्रास, असुरक्षा आदि भोग रहा है। मानवता की इस पीड़ा का मुख्य कारण योग जीवन पद्धति से भटकना है। इस जीवन पद्धति को अपनाए बगैर मानव जीवन के कष्टों का निवारण हो ही नहीं सकता। इसी से चित्त की वृत्तियो में परिवर्तन होता है अर्थात व्यक्ति की प्रकृति में आधारभूत परिवर्तन होता है जिससे वह अपने को लोभ, लालच, ईर्ष्या, क्रोध, मोह, अहंकार आदि मनोविकारों से शनैः शनैः दूर होता जाता है। विश्व आज योग के इसी आयाम को समझ कर इसे अपनाने को प्रस्तुत है।
यम-नियम के सिद्धांतो का पालन करते हुए यदि हम प्रतिदिन कुछ समय निकाल कर केवल कटि-स्नान, जल-नेती एवं कतिपय आसनों के अभ्यास के साथ-साथ शंखनाद एवं ध्यान करें तो इतने से हमारा काफी कुछ कल्याण हो सकता है। इन सारी क्रियायों में मुश्किल से एक से डेढ़ घंटे का समय लगेगा। कटि-स्नान से हमारा पाचन तंत्र पुष्ट होता है। जल-नेती से लगभग साठ  प्रकार के nasal infections  की संभावना ख़त्म होती है, और शंखनाद तो स्वयं में physical, mental and metabolic exercise है। ध्यान के निमित्त शंखनाद का कोई विकल्प नहीं है। इसका अभ्यास स्वयमेव ध्यान की अवस्था में पहुंचा देता है।
परन्तु   इसके साथ हमें अपने आहार की मात्रा, गुणवत्ता एवं आहार करने के समय को भी दृष्टिगत रखना होगा। उचित समय एवं उचित मात्रा में सात्विक आहार आवश्यक है। आहार के द्वारा हमारा मेटाबोलिज्म एवं तदनुसार मनोवृत्तियां नियंत्रित होती हैं। सब कुछ कर लेने के बाद भी यदि आहार नियंत्रित नहीं किया गया तो अपेक्षित परिणाम प्राप्त नहीं हो सकते।
इस प्रकार योग एवं उसकी आनुषंगिक क्रियायों द्वारा व्यक्ति की समग्र चेतना एवं ऊर्जा का विकास होता है। मानव की विशेषता केवल उसकी विशिष्ट चेतना ही है। इस चेतना को जितना अधिक विकसित किया जाएगा उतनी ही मनुष्य की विशिष्टता बढ़ती जायेगी। मानव के सात ऊर्जा चक्रों की सक्रियता उसकी चेतना के स्तर को परिलक्षित करती है। इन चक्रों को यदि जाग्रत कर लिया जाय तो चेतना का स्तर भी उच्चीकृत हो जाता है। योग की प्रक्रियायें चेतना के स्तरों का उच्चीकरण करती हैं।
ध्यान के साथ मन्त्र जाप करने से चेतना के स्तरों में अतिशीघ्र एवं आशातीत वृद्धि होती है। मन्त्र वास्तव में ऊर्जा चक्रों को सक्रिय करने के साधन (tools) है। जैसे ‘राम’ का जप करने से हृदय चक्र जागृत होता है, ‘कृष्ण’ का जप करने से नाभि चक्र जागृत होता है तथा ‘सोहम्’ के उच्चारण से हृदय एवं नाभि दोनों चक्र प्रभावित होते है।  मंत्रो का जाप करने से ऊर्जा चक्र सक्रिय होते हैं जिससे चेतना के उच्च स्तरों का विकास होता है। मंत्रो को इस प्रकार से डिजाइन ही किया गया है कि यदि निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार उनका अभ्यास किया जाय तो व्यक्ति की चेतना असीमित स्तर तक पहुँच सकती है; और यदि निर्धारित प्रक्रिया न अपनाई जाय तो तत्काल नुकसान भी हो सकता है।
इस प्रकार योग एक जीवन पद्धति है जिसका सम्बन्ध किसी धर्म, सम्प्रदाय एवं मत से न होकर सम्पूर्ण मानवता से है। यह कहना कि यह केवल हिन्दू जीवन पद्धति अथवा Hindu Way of Life  है, त्रुटिपूर्ण है। ईसाई धर्म में उपवास को महत्व देना, इन्द्रियो का दास न बनना, ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास करना तथा सत्कर्म करते हुए परमेश्वर में विलीन हो जाना, योग ही है। जरथोस्ती धर्म के ‘अहुर वन’ अर्थात्‍ ईश्वर प्राप्ति की तीन प्रक्रियायें – ज्ञान, कर्म एवं मुक्ति – की साधना ही मनुष्य को मोक्ष का अधिकारी बनाती है। बौद्ध एवं जैन धर्म का आधार ही योग है जहाँ पर क्लिष्ट योग को आसान बना कर जन-सामान्य को समझाया गया है। इस्लाम में नमाज केवल आसन एवं ध्यान पर आधारित प्रार्थना पद्धति है। पाँचो वक्त का नमाजी प्रायः रोग मुक्त रहता है। कबीर का पूरा साहित्य ही योग पर आधारित होकर जन-सामान्य को इसे अपनाने के लिए प्रेरित करता है। योग का वर्णन करते हुए कबीर दास कहते है :-
नहीं कुछ ग्यान ध्यान सिधि जोग, ताथैं उपजें नाना रोग।
का बन मैं बसी भये उदास, जे मन नाही छाड़े आसा पास॥ 
योग और प्राकृतिक चिकित्सा की व्याख्या अब्दुल रहीम खानखाना के निम्न दोहे से अच्छी और कहाँ हो सकती है :-
                   रहिमन बहु भैषज करत व्याधि न छाडत साथ।
                   खग-मृग बसत अरोग वन  हरि अनाथ के नाथ॥
वन यानि प्राकृतिक वातावरण तथा ‘हरि’ अर्थात्‍ प्राकृतिक शक्तियां – इनके अधीन, इनके प्रभाव में जो भी रहता है वह सदैव निरोग रहता है अन्यथा अनेक प्रकार की औषधियां लेने एवं विभिन्न प्रकार की चिकित्सा कराने पर भी बीमारियाँ साथ नहीं छोड़ती  हैं।
इस प्रकार योग सम्पूर्ण मानवता की धरोहर है जिसका संबंध मात्र किसी विशेष धर्म अथवा सम्प्रदाय से न होकर अखिल विश्व समुदाय से है। मनुष्य के कष्टों का निवारण एवं कल्याण केवल और केवल योग जीवन पद्धति के अपनाने से ही संभव है। आज विश्व भारत वर्ष के सहयोग से सही रास्ते पर चलने को आतुर है और हम सब लोग इसके गवाह बन रहे है यह हमारा सौभाग्य है।
सभी को बहुत – बहुत शुभ कामनाये एवं हार्दिक बधाई।
बहुत – बहुत धन्यवाद। 


-         ---The speech was delivered by me in a seminar organized by Lucknow University on International Yoga Day – June 21st, 2015.