Sunday 5 July 2015

विश्व के विभिन्न भाषा क्षेत्रो पर संस्कृत का प्रभाव एवं प्रसार


भाषा की उत्पत्ति एवं विकास परस्पर संपर्क में आने वाले मानव समुदायों द्वारा सामूहिक भागीदारी के क्रम में होता है. यदि किसी समाज की सामाजिक – आर्थिक व्यवस्थाये इतनी प्रभावी है कि वे एक या अनेक मानव समूहों को निकट ला सके तो संपर्क में आने वाले व्यक्ति की बोली कुछ भी हो फिर भी प्रभावी समाज की भाषा के शब्द भण्डार का प्रयोग इन समूहों द्वारा अपरिहार्य होगा.

भाषा के  प्रसार का एक कारण आबादी का विस्थापन है. आबादी, विस्थापन के साथ साथ नयी जगह पर अपनी परम्पराये, मान्यताये, भाषा, संस्कृति भी ले जाती है और यदि विस्थापित आबादी का वहां की सामाजिक – आर्थिक संरचना में महत्वपूर्ण योगदान निरंतर बना रहे तो प्रवासी भाषा ऐसे समाज में महत्वपूर्ण स्थान बनाकर स्थानीय लोगो द्वारा भी अपना ली जाती है. अंग्रेजो के साथ अंग्रेजी भाषा का भारत में आना तथा भारतीय समाज में उसकी स्वीकार्यता इस श्रेणी का उदहारण है. जबकि उसी समय भारत में आयी फ्रेंच, डच एवं स्पेनिश यहाँ अपना कोई महत्वपूर्ण स्थान नहीं बना सकी. भारतीयों का बड़ी तादात में मारिशस, फिजी, सूरीनाम आदि देशो में जाकर वहां अपनी संस्कृति  एवं भाषा को स्थापित करना भी इसी प्रकार का उदहारण है. कुछ अपवादों को छोड़ कर इन प्रवासिओं की मूल संस्कृति एवं भाषा में कोई विशेष परिवर्तन नहीं होता. और यदि ये प्रवासी स्थानीय सामाजिक – आर्थिक संरचना में महत्वपूर्ण बने रहे तो इनकी भाषा एवं संस्कृति उस स्थान विशेष की मूल भाषा एवं संस्कृति में परिवर्तित हो जाती है.

 भाषा का प्रसार बगैर आबादी के विस्थापन से भी संभव है. वर्तमान में अंग्रेजी, चीनी, फ्रेंच, जर्मन, जापानी भाषाओँ का वर्तमान में आर्थिक उपयोगिता को द्रष्टिगत रखते हुए हो रहे प्रसार को कहा जा सकता है. यह प्रसार वगैर आबादी के विस्थापन के हो रहा है. इस प्रकार के प्रसार को व्यापारिक एवं व्यावसायिक गतिविधियाँ नियंत्रित करती है. विश्व की अधिकांश भाषाये इसी प्रकार से प्रसारित हुयी है.  स्वतन्त्रता के पश्चात भारत में अंग्रेजी का विकास इस श्रेणी में आता है. विश्व की मुख्य भाषाओ का प्रसार इसी प्रकार से हुआ है. वर्तमान में भारतीय छात्रो की जर्मन, फ्रेंच, चीनी, जापानी भाषाओ के प्रति रुझान इस तथ्य की पुनः पुष्टि करता है.

प्रत्येक भाषा की उत्पत्ति का अपना एक केंद्र होता है और उस केंद्र के चारो ओर  भाषा का प्रसार उसकी प्रभावशीलता पर आधारित होता है. अपनी सामाजिक – आर्थिक उपयोगिता के चलते यदि किसी भाषा का प्रसार काफी बड़े भौगोलिक क्षेत्र में हो और कालांतर में यदि दूरस्थ इलाको का संपर्क किसी कारणवश केंद्र से समाप्त हो जाय तो भौगोलिक दूरिओं के कारण हुए isolation के परिणामस्वरूप दूरस्थ इलाके की  भाषा के बाह्य स्वरुप में इतने परिवर्तन दिखाई पड़ेगे कि वह एक नयी भाषा प्रतीत होने लगती है  लेकिन उसकी आधारभूत संरचना अपनी मूल भाषा से भिन्न नहीं होगी.

भारोपीय भाषाओँ का प्रसार भारत से लेकर यूरोप पर्यन्त था. इन भाषाओँ की कोई आदि भाषा होनी चाहिए जिसका कोई उत्पत्ति एवं प्रसार का केंद्र भी होना चाहये. प्राचीन भारतीय समाज की अपनी सामजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक एवं वैचारिक सशक्तता के कारण इस समाज की भाषा केवल संस्कृत ही इस प्रकार से सक्षम थी कि वह भारत से लेकर यूरोप तक अपना प्रभाव डाले. इस कथन को सिध्द करने के लिए विद्वानों द्वारा बहुत से तथ्य एवं प्रमाण दिए गए है परन्तु मै उनमे से दो का उल्लेख करना चाहूगा.

संस्कृत भाषा के सापेक्ष अन्य भाषाओ के भौगोलिक प्रसार का यदि परीक्षण किया जाय तो विश्व की ज्यादातर भाषाओ को हम संस्कृत के केंद्र में पाते है जैसे तालाब के पानी में यदि पत्थर डाला जाय तो पत्थर के गिरने के साथ - साथ पानी की कुछ बूंदे स्वतः उछल कर चारो छलक कर पत्थर को केंद्र बनाते हुए गिर पड़ती है. लगभग इसी प्रकार संस्कृत का विकास एवं प्रसार हुआ.

 संस्कृत का केंद्र आर्यावर्त था जहाँ पर इसकी उत्पत्ति हुयी और विकसित होकर चारो दिशाओं में इसका प्रसार हुआ. भारत की विभिन्न भाषाओं के भौगोलिक क्षेत्र यथा नेपाली, असमिया, बंगाली, उड़िया, मराठी, गुजराती, सिंधी, पंजाबी, डोंगरी, आदि आर्यावर्त के चारो ओर है. यहाँ तक कि संस्कृत का स्पष्ट प्रभाव ईरानी, रूसी, जर्मन, लैटिन, ग्रीक, फ्रेंच, अंग्रेजी पर स्पष्ट परिलक्षित होता है. संस्कृत भाषा की इस केन्द्रीय स्थिति के




बारे पाश्चात्य विद्वानों ने कोई विश्लेषण नही किया की ऐसा किस प्रकार से संभव है. इस परिप्रेक्ष्य में संस्कृत के साथ अन्य भाषाओ की स्थिति प्रदर्शित करते हुए चित्र से काफी कुछ तथ्य स्वतः प्रकट होते है.

यदि संस्कृत भारत में मध्य एशिया अथवा अन्य कही से आयी होती तो इसके प्रसार क्षेत्र का विन्यास इस प्रकार का कदाचित हो ही नहीं सकता था. डा० भगवान सिंह का शोध – आर्य एवं द्रविड़ भाषाओ की समानता – को यदि द्रष्टिगत रखा जाय तो संस्कृत का प्रभाव द्रविड़ क्षेत्र से लेकर सुदूर मध्य पूर्व होते हुए ऑस्ट्रेलिया तक पहुँच जाता है. वस्तुतः संस्कृत भाषा के प्रभाव से विश्व का कोई कोना अछूता नहीं रहा है.

संस्कृत के इस प्रकार के विस्तार की यह कह कर आलोचना की जा सकती है कि वैदिक जनो का विस्थापन इतिहास में कभी ज्ञात नहीं रहा. जैसा कि पूर्व में उल्लेख किया जा चुका है कि भाषा के प्रसार के लिए आबादी विस्थापन आवश्यक नहीं है. आवश्यक है उस समाज का विश्व व्यवस्था के सापेक्ष सामाजिक – आर्थिक स्थिति जिससे अन्य समाज, देश एवं राष्ट्र उस राष्ट्र की भाषा अपनाने को बाध्य होते है अन्यथा वे विश्व व्यवस्था में पिछड़ जायेगे. एक उन्नत एवं विकसित भाषा का नस्ल या जाति से नाम मात्र का सम्बन्ध होता है. इसके  प्रभाव क्षेत्र का विस्तार, ग्रहण क्षेत्र के समानुपातिक होगा. प्रसार क्षेत्र को देखते हुए सम्बंधित सभ्यता की प्रगति एवं उन्नति की कल्पना की जा सकती है. संस्कृत का विकास एवं प्रसार इसी प्रकार से हुआ. इसके विपरीत कल्पना नहीं की जा सकती.

संस्कृत भाषा की यह स्थिति वैदिक समाज के चरमोत्कर्ष तक रही. जैसे - जैसे इस समाज की प्रभावशीलता में कमी आयी भौगोलिक दूरियां काफी अधिक होने के कारण स्थानीय स्तर पर बोली के अनुरूप विभिन्न क्षेत्र की भाषाओँ में भी परिवर्तन एवं परिवर्धन होते गए और वे आज के स्वरुप को प्राप्त हुयी. परन्तु इन सभी भाषाओ में मूलभूत एकता एवं समानता बनी रही जो आज भी द्रष्टिगोचर हो रही है.

फिर भी कुछ यूरोपीय विद्वानों ने भारत से इतर मध्य एशिया में संस्कृत की उत्पत्ति एवं विकास तथा वही से इसका प्रसार प्रतिपादित किया क्योकि इस सिद्दांत से यूरोपीय सुप्रीमेसी एवं भारत में आर्यों का बाहर से आना सिध्द करने में थोड़ी आसानी दिखाई दे रही थी. परन्तु यह सिद्धांत ज्यादा दिनों तक ग्राह्य नहीं रहा.
इस परिप्रेक्ष्य में असीरिया के हित्ती एवं मितन्नी राज्यों का उदहारण दिया जाता है जिनकी भाषा पर वैदिक संस्कृत का प्रभाव दिखाई पड़ता है. हित्तियो एवं मित्तनियो का काल क्रमशः ईसा पूर्व २००० से ईसा पूर्व ११९० तथा  ईसा पूर्व २००० से लेकर ईस्वी पूर्व १३३५ का माना जाता है.    

अनातोलिया अथवा टर्की के मूल निवासी हित्ती नहीं थे. आर्य हित्ती जाति यहाँ पूर्व से आयी थी. हित्तिओं की प्रारंभिक भाषा को हित्तल कहा गया है. हित्ती अभिलेखों में कम से कम आठ भाषाओँ का प्रयोग हुआ है. हित्तिओं के शासक वर्ग की भाषा जिसकी लिपि कीलाक्षर है, पर भारोपीय भाषा समूहों का प्रत्यक्ष प्रभाव द्रष्टिगोचर होता है. फिर भी इस भाषा में भारोपीय शब्द बहुत कम है.

मित्तनियो  का शासक वर्ग भी भारोपीय परिवार से था जिसने पूर्व से आकर वहां पर शासन किया, जबकि जनसंख्या में हुर्री जाती का बाहुल्य था जिसकी भाषा के बारे में कोई विशेष जानकारी नहीं है. ये बाहरी लोग भारोपीय शाखा से सम्बंधित थे तथा इनकी भाषा पर भी वैदिक संस्कृत का प्रभाव दिखाई पड़ता है. बोघजकोई से प्राप्त एक संधि अभिलेख (लगभग १४०० ई० पू०) में वैदिक देवताओं इंद्र, वरुण, मित्र, नासत्य – द्वय आदि का वर्णन आया है. इसके अतिरिक्त कतिपय अन्य वैदिक संस्कृत के शब्दों का भी उल्लेख मिलता है.

उपरोक्त तथ्यों के आधार पर यदि  संस्कृत भाषा की  उत्पत्ति एवं विकास केंद्र मध्य एशिया को मानने से निम्न समस्याए उत्पन्न होती है :-

१.संस्कृत की उत्पत्ति एवं प्रसार का मूल केंद्र यदि मध्य एशिया था तो उसे जन सामान्य की भाषा होना चाहिए क्योकि ऐसा हुए बिना किसी भाषा का विकास हो ही नहीं सकता. ज्ञात इतिहास इस प्रकार के किसी तथ्य को उद्घाटित नहीं करता.
२.वे कौन से कारण थे जिनसे प्रभावित होकर हित्तियो एवं मित्तनियो ने अपना मूल देश को सदा के लिए भुलाकर भारत की ओर पलायन कर दिया और फिर कभी भी पलट कर उस ओर नहीं देखा. यहाँ तक कि अपनी यादो से भी अपने मूल देश को सदा के लिए भुला दिया.
३.पाश्चात्य विद्वानों ने ऋग्वेद काल बहुत मुश्किल से ई०पू० १७०० के आसपास माना है (यह त्रुटिपूर्ण है क्योकि महाभारत काल ई० पू० ३२०० के आस पास निर्धारित किया गया है जबकि वेदों की रचना महाभारत से काफी पूर्व हो चुकी थी).  यदि इस समय तक ऋग्वेद जितनी संस्कृत परिष्कृत हो चुकी थी तो हित्तियो एवं मित्तनियो ने इसका प्रयोग क्यों नहीं किया.
४.संस्कृत मध्य एशिया की अन्य भाषाओ एवं समाज पर कोई प्रभाव क्यों नहीं डाल सकी.
५.हित्तियो एवं मित्तनियो दोनों के शासक वर्ग पूर्व से आये थे. वैदिक जनो के अतिरिक्त पूर्व में कोई अन्य सभ्यता थी नहीं.

वस्तुतः हित्तियो एवं मित्तनियो का शासक वर्ग पूर्व से वहां पंहुचा था जो अपने साथ अपनी भाषा और संस्कृति भी ले गया था जिसका प्रभाव वहां के समाज में देखने को मिलता है जैसा आज फिजी, सूरीनाम, मारीशस आदि देशो में देखने को मिल रहा है. संस्कृत की उत्पत्ति एवं विकास मध्य एशिया में होना किसी भी प्रकार से तथ्यों एवं साक्ष्यो से समर्थित नहीं है. वस्तुतः संस्कृत इतनी सुव्यवस्थित एवं वैज्ञानिक भाषा है जो एक कुशल एवं स्थिर सामाजिक – आर्थिक व्यस्था के अंतर्गत ही विकसित हो सकती है. इस प्रकार स्पष्ट है कि संस्कृत पूर्व से पश्चिम की ओर गयी है न कि पश्चिम से पूर्व की ओर आयी है.

संभवतया संस्कृति की इन्हीं विशिष्टियो से अभिभूत होकर सर विलियम जोन्स इस विषय पर निम्न प्रकार से टिप्पणी करने पर मजबूर हुए हो :- “संस्कृत भाषा कितनी भी पुरानी क्यों न हो, इसका गठन अदभुत है. यह ग्रीक से अधिक निर्दोष, लैटिन से अधिक समृद्ध और इनमे से किसी में से भी अधिक उत्कृष्ट या सुपरिमार्जित; इसके बावजूद धातुयों और व्याकरणिक रूपों में यह इन दोनों से इतना प्रगाढ़ सम्बन्ध रखती है जो केवल आकस्मिक नहीं हो सकता; इतना प्रगाढ़ कि कोई भाषाविद इनको किसी एक ही श्रोत से, जो अब शायद अस्तित्व में नहीं है, उत्पन्न माने बिना इनकी छानबीन नहीं कर सकता “. 

इस टिप्पणी में सर जोंस संस्कृत विश्व की अन्य भाषाओ का उद्गम श्रोत नहीं मान रहे है. क्या इसको संस्कृत के प्रति दुराग्रह नहीं कहा जाना चाहिए.

संस्कृत का ग्रीक, लैटिन एवं अंग्रेजी पर स्पष्ट प्रभाव आज भी देखा जा सकता है. आर्यावर्त जहाँ संस्कृत की उत्पत्ति एवं विकास हुआ उससे ये क्षेत्र बहुत दूर है लेकिन इन योरोपीय भाषाओ के बहुत सारे शब्द संस्कृत भाषा से लिए गए है. ऐसा संभवतयः समाजिक – आर्थिक अन्तः क्रियाओ के परिणामस्वरुप हुआ होगा. इन तीनो योरोपीय भाषाओ एवं हिन्दी तथा संस्कृत के मेरे अत्यल्प ज्ञान के बाबजूद कतिपय शब्द जो संस्कृत/
हिन्दी से योरोप गए  है उनको निम्न तालिका में दिया जा रहा है.

    
क्रमांक
हिन्दी/संस्कृत
अंग्रेजी/ग्रीक/लैटिन
1
नीलाम्बुज
Neelambium
2
कार
Car
3
जूथ
Youth
4
कोट
Coat
5
भूर्ज
Birch
6
प्लनटम
Plenty
7
वयम्
We
8
यूयम्
You
9
घास
Grass
10
टोप
Top
11
संत
Saint
12
दन्त
Denta
13
बंद
Bundh
14
बद
Bad
15
द्वार
Door
16
नाम
Name
17
मद
Mad
18
बरन
Burn
19
पाद
Poda
20
नियरे
Near
21
खाट
Cot
22
पात्र
Pot
23
वामा
Woman
24
मानव
Man
25
अवनि
Oven
26
गल
Glacier
27
पितृ
Father
28
मातृ
Mother
29
नव
New
30
मै
Me
31
सर्प
Serpent
32
भ्राता
Brother
33
देवता
Deity
34
सम
Same
35
योग
Yoke
36
युवा
Young
37
ज्ञान
Gnosis
38
कल्याण
Kalon
39
मृत
Mortal
40
स्वयं
Suo
41
कट
Cut
42
मूक
Mute
43
वाचाल
Vocal
44
गौ
Cow
45
काक
Crow
46
उलूक
Owl
47
क्षेत्र
Sector
48
केंद्र
Centre
49
अस्थि
Ostheo
50
चर्म
Derma
51
पोच
Poach
52
ध्वनि
Din
53
सौर
Solar
54
लख
Look
55
वार
War
56
आयन
Ion
57
धनोद
Anode
58
ऋनोद
Cathode
59
नीको
Nice
60
पीला
Pale
61  
क्रिया
Create


इन शब्दों की संख्या और बढ़ सकती है यदि इस विषय पर कोई नियमित शोध किया जाय. यह एक सामान्य प्रक्रिया है और भाषा का विकास इसी प्रकार से होता है.

अंत में सर विलियम जोन्स के कथन से सहमत होते हुए इस तथ्य को स्वीकार करने के पर्याप्त आधार है कि भूत काल में संस्कृत भाषा आर्यावर्त के जनसामान्य की भाषा होकर अपने शिखर पर पहुँची तथा इसने समस्त विश्व की सभ्यताओ पर प्रभाव  डालकर अखिल विश्व में अपना स्थान बनाया जो आज भी परिलक्षित हो रहा है.


Saturday 4 July 2015

मुहूर्त, मुहूर्त निर्धारण तथा विशिष्ट मुहूर्त में निष्पादित किये जाने वाले कार्य


                       भारतीय जन मानस प्रत्येक कार्य, कार्य के अनुकूल शुभ मुहूर्त की गणना करवाकर कार्य को मुहुर्तानुसार निष्पादित करता है ताकि कार्य सफल एवं फलदायी हो. मुहूर्तो की संकल्पना एवं व्यवस्था भारतीय संस्कृति की विशिष्टता है. कार्यो को मुहूर्त के अनुसार सम्पादित करने पर सफलता निश्चित है, ऐसा विश्वास किया जाता है. आज भी प्रत्येक शुभ कार्य के लिए उचित मुहूर्त निकलवाया जाता है और उसी के अनुरूप कार्य किया जाता है.
            मुहूर्त की महत्ता के बारे में महान भारतीय गणितज्ञ  भाष्कराचार्य जिन्होंने गणित की पुस्तक लीलावती लिखी, के जीवन से सम्बंधित घटना द्रष्टव्य है. भास्कराचार्य ने अपनी पुत्री लीलावाती की शादी का मुहूर्त पहले से गणना करके बता दिया था और आगाह भी कर दिया था की यदि निर्धारित मुहूर्त में लीलावती की शादी नहीं हुयी तो फिर उसकी शादी कभी नहीं होगी. नियत तिथि पर लीलावती एवं उसका भावी वर शुभ मुहूर्त की प्रतीक्षा करने लगे. घटी यंत्र – जो एक छोटी कटोरी जिसकी तली में एक छोटा सा छेद होता है, पानी पर तैरा दी जाती है और यह कटोरी, एक घटी यानि २४ मिनट में डूब जाती है – से मुहूर्त की गणना प्रारंभ की गयी. लीलावती भी वर के साथ घटी यंत्र के पास ही बैठी थी. दुर्भाग्य से अनजाने में लीलावती के गले के हार का एक छोटा सा मोती टूटकर घटी यंत्र में गिर गया जिसकी जानकारी किसी को न हो सकी. परिणामस्वरूप घटी यंत्र निर्धारित समय पर नहीं डूबा और शादी का मुहूर्त निकल गया. कुछ समय पश्चात वहां पर एक सर्प प्रकट हुआ जिसने वर को डंस लिया और उसकी मृत्यु हो गयी. लीलावती को पुनः कोई वर नहीं मिला और वे आजीवन अविवाहित रही. भाष्कराचार्य इस घटना से बहुत दुखी हुए और उन्होंने लीलावती को समर्पित करते हुए गणित की पुस्तक ‘लीलावती’ की रचना की. मुहूर्त का महत्व कितना है इस घटना से समझा जा सकता है.
            मुहूर्त की गणना, उसका नामकरण एवं उस मुहूर्त में क्या कार्य सम्पादित करने चाहिए, इसका उल्लेख ‘अथर्ववेदीय ज्योतिषम्  – काश्यप – प्रजापति – संवादेन प्रोक्तम्’  में किया गया है. बारह अंगुल की सीधी लकड़ी को समतल भूमि पर खडी गाढ़कर उसकी छाया की माप के अनुसार मुहूर्त निर्धारण किया जाता है. तीस त्रुटिओं का एक मुहूर्त होता है.


त्रुटीनान्तु भवेत् त्रिशन्मुहूर्तस्य प्रयोजनम्  |
द्वादशांगुलमुच्छेषम् तस्य छाया प्रमाणतः ||


            नीचे दी गयी तालिका में लकड़ी की छाया की माप एवं माप के अनुरूप मुहूर्त तथा उस मुहूर्त में किये जाने वाले कार्यो का उल्लेख किया गया है.
क्रमांक
लकड़ी की छाया की माप  (अंगुल में)
मुहूर्त
मुहूर्त में किये जाने वाले कार्य
1
96 – 61
रौद्र
सभी प्रकार के मारणादि प्रयोग, भयंकर एवं क्रूर कार्य.
2
61 – 13
श्वेत
नवीन वस्त्र धारण करना, स्नान करना, बगीचा लगाना, ग्राम बसना, कृषि कार्यो का आरंभ करना एवं इसी प्रकार के अन्य सोचे हुए कार्यो को प्रारंभ करना.
3
13 – 7
मैत्र
मित्रता, संधि एवं मेल मिलाप संबंधी कार्य.
4
7 – 6
सारभट
शत्रुओं के लिए अभिचार कर्म अर्थात मारणादि  प्रयोग अथवा अपने तथा अपने मित्रो के शत्रुओं को नष्ट करने हेतु कार्य.
5
6 – 5
सावित्र
सभी प्रकार के यज्ञ, विवाह,चूडा कर्म, उपनयन आदि संस्कार एवं अन्य देव कार्य.
6
5 – 4
वैराज
राजाओ के पराक्रम के कार्य, शस्त्रों का निर्माण, वस्त्रों का दान आदि.
7
4 – 3
विश्वावसु
द्विजाति  के स्वाध्याय संबंधी सभी कार्य एवं अर्थ सिद्धि के कार्य.
8
3 – 0
अभिजित
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र आदि सभी वर्णों के मेल मिलाप से सम्बंधित कार्य. यह मुहूर्त सब प्रकार की कामनाओं को पूर्ण करने वाला है तथा इस मुहूर्त में धन संग्रह करने वाले एवं किसी प्रकार की यात्रा करने वाले को अवश्य सफलता मिलती है.
9
0 – 3
रोहिण
इस मुहूर्त में लगाए गए वृक्ष, बेल तथा लताये निरोग होती है और उन पर सर्वदा ही, सुन्दर फल एवं फूल लगे रहते है.
11
3 – 4
बल
इस मुहूर्त में राजाओं को स्वयं ही सेनाओ का संचालन करना चाहिए क्योकि इस मुहूर्त में आक्रमण करने पर विजय अवश्य प्राप्त होती है.
11
4 – 5
विजय
इस मुहूर्त में चढ़ाई करने से विजय अवश्य प्राप्त होती है और स्वस्ति वाचन तथा शांति पाठ आदि मंगलाचार कार्यो के लिए भी यह मुहूर्त प्रशस्त है.
12
5 – 6
नैरऋत
शत्रुओं के राष्ट्रों पर आक्रमण करके उनकी सम्पूर्ण सेना को नष्ट किया जा सकता है और पराजित शत्रु की संपत्ति भी इसी मुहूर्त में आक्रमण करने से प्राप्त होती है.
13
6 – 12
वारुण
जल में उत्पन्न होने वाले धान्य, गेंहूं, जौ, धान, कमल आदि के बीज बोना शुभ होता है.
14
12 – 60
सौम्य
सब शुभ कार्य सफल होते है.
15
60 – 96
भग
स्त्रिओं के विशेषकर कन्यायों के सौभाग्य कार्य अर्थात पाणिग्रहण संस्कार के लिए यह मुहूर्त सर्वथा उपयुक्त है.
                       
      इस प्रकार सूर्योदय से सूर्यास्त पर्यन्त पंद्रह मुहूर्त बतलाये गए है तथा रात्रि में भी दिन के क्रम से पंद्रह मुहूर्त होते है जिनकी गणना शंकु छाया के अनुपात से की जाती है अर्थात चौबीस घंटे के एक दिन में कुल तीस मुहूर्त होते है.

            कार्य के अनुरूप मुहूर्त, लग्न एवं तिथि की गणना करवाकर कार्य करने से कार्य अवश्य सफल एवं फलदायी होता है