वर्तमान में हमारी
पूजा पद्धति में अगरबत्ती जलाना लगभग अनिवार्य है. जबकि सनातन व्यवस्था में पूजा
के उपरान्त विभिन्न प्रकार की सूखी वनस्पतियों,
वृक्षों की पत्तियों, गाय के घी तथा अन्य वानस्पतिक उत्पादों से हवन करना अथवा धूप
जलाना प्राविधानित है. अगरबत्ती का प्रादुर्भाव एवं प्रयोग कब और कैसे प्रारम्भ हुआ
यह शोध का विषय हो सकता है लेकिन इसके जलने से और इसका धुआं एवं गंध श्वास के साथ
शरीर में जाने के कारण इसका स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव सुस्थापित हो चुका है.
अगरबत्ती प्रायः
बांस की सींक के ऊपर organic
एवं inorganic केमिकल/पदार्थो का लेप करके बनाई जाती है. इसके
जलने पर बांस भी जलता है. बांस में lead
एवं heavy metals प्रचुर
मात्र में होते है. Lead जलने
पर lead oxide बनाता जो कि एक खतरनाक neuro-toxic है. Heavy metals भी जलने पर oxides बनाते
है. पूजा के दौरान Lead
oxide एवं heavy metals के अन्य oxides श्वास के साथ शरीर में प्रवेश कर जाते है.
अगरबत्ती के जलने से
उत्पन्न हुयी सुगंध के प्रसार के लिए phthalate नाम के
विशिष्ट केमिकल का प्रयोग किया जाता है. यह एक phthalic acid का ester होता है. यह neuro-toxic एवं hepato-toxic होता है. यह भी श्वास के साथ शरीर में प्रवेश करता
है.
इस प्रकार अगरबत्ती की तथाकथित सुगंध अपने
साथ nero-toxics एवं
hepato-toxics को भी श्वास के साथ शरीर में पहुंचाती है. इन toxic substances की लेशमात्र उपस्थित कैंसर अथवा मस्तिष्क आघात
का कारण बन सकती है. Hepato-toxics की थोड़ी सी मात्रा liver को नष्ट करने के लिए पर्याप्त है. और जो प्रतिदिन घंटो इन toxics को ग्रहण करते है उनकी स्थिति का अंदाज सहजता से
लगाया जा सकता है.
भारतीय सनातन परम्पराओ में बांस का जलाना
निषिद्ध है. कहा जाता है की यदि बांस की लकड़ी से चूल्हा जलाया गया तो वंश नष्ट
होने से कोई रोक नहीं सकता. ऐसा निषेध क्यों प्राविधानित किया गया था, यह उपरोक्त
विवेचन से स्पष्ट है. बांस का प्रयोग शव यात्रा के समय टिकटी बनाने में किया जाता
है और इसे चिता में भी जलाया नहीं जाता. इस परंपरा का यही वैज्ञानिक आधार है.
आज अगबत्ती का अरबो रुपये का कारोबार है.
इससे किसको क्या फायदा हो रहा है आप अच्छी तरह से समझ सकते है.
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