सम्पूर्ण ब्रम्हांड में ऊर्जा एवं चेतना आपस में अन्तःसम्बन्धित तथा अन्त:निर्भर है। जितनी ऊर्जा उतनी चेतना। ऊर्जा ज्यादा चेतना ज्यादा। ऊर्जा कम चेतना कम। ब्रम्हांड के कण कण में ऊर्जा है और प्रत्येक कण चेतनायुक्त है। स्थूल संरचनाओं, कीट पतंगो- पतंगो, मनुष्य एवं अन्य जीव जंतुओं आदि में केवल चेतना के स्तरों का ही अंतर है। मनुष्य अपने चेतना के विकसित स्तरों के कारण ही मनुष्य है।चेतना के विभिन्न स्तरों के आधार पर व्यक्तिओं का बौद्धिक एवं अनुभूतिओं का स्तर निर्धारित होता है। चेतना विहीन मनुष्य पशुवत है। चेतना का विस्तार ऊर्जा के विस्तार से संभव है।
मानव शरीर में सात ऊर्जा चक्र है जिनकी सक्रियता हमारे शरीर का ऊर्जा स्तर और परिणामतः चेतना स्तर निर्धारित करती है। चेतना के उच्च स्तरों की प्राप्ति के लिए हमें अपने ऊर्जा चक्रों को सक्रिय करना होगा। ऊर्जा चक्रो की सक्रियता केवल योग के माध्यम से ही संभव है।
योग शास्त्रों में वर्णित षट्कर्मों के अभ्यास से शरीर का बाह्य एवं आतंरिक शोधन होता है। यम एवं नियम के अनुसरण से दृश्य, श्रव्य, स्पर्श, गंध एवं स्वाद के सापेक्ष इन्द्रिओं के माध्यम से प्राप्त उद्दीपनों के परिणामस्वरूप मस्तिष्क में उत्पन्न होने वाले अनगिनत हानिकारक रसायनो के उत्पादन पर विराम लगता है। वर्णित ३२ मुख्य आसनो एवं प्राणायाम के नियमित अभ्यास से मांस पेशिओं की मजबूती के साथ साथ शरीर के अंग प्रत्यंग में प्राणो का आवश्यकतानुसार संचार होता है। प्राणायाम शब्द प्राण एवं आयाम से मिलकर बना है जिसका तात्पर्य प्राणो को आयाम देना है। प्रत्याहार द्वारा इन्द्रिओं को सांसारिकता से विरक्त करके मन को बाहर से खींच कर भीतर की ओर लाया जाता है। मन को भीतर ठहरा रहने को धारणा कहते है और इष्ट देव या इष्ट ध्येय में मन लगाना ध्यान है। इष्ट में मन को लीन करके अपने आप को भूल जान समाधि है।
समाधि में व्यक्ति का पूर्ण सामंजस्य अखिल ब्रम्हांड से हो जाता है।
इस सामंजस्यता के परिणामस्वरूप व्यक्ति की ऊर्जा एवं ब्रह्माण्डीय ऊर्जा आपस में लयवद्ध एवं एकाकार होकर व्यक्ति को असीम ऊर्जा, चेतना एवं आनंद की अनुभूति प्राप्त होती है। यह केवल और केवल योग द्वारा ही संभव है। हमारे ऊर्जा चक्र शनैः शनैः योग अभ्यास से सक्रिय होते है और हमको योग की अंतिम परिणित अर्थात समाधि तक पहुंचाते है।
मानव शरीर में सात ऊर्जा चक्र है जिनकी सक्रियता हमारे शरीर का ऊर्जा स्तर और परिणामतः चेतना स्तर निर्धारित करती है। चेतना के उच्च स्तरों की प्राप्ति के लिए हमें अपने ऊर्जा चक्रों को सक्रिय करना होगा। ऊर्जा चक्रो की सक्रियता केवल योग के माध्यम से ही संभव है।
योग शास्त्रों में वर्णित षट्कर्मों के अभ्यास से शरीर का बाह्य एवं आतंरिक शोधन होता है। यम एवं नियम के अनुसरण से दृश्य, श्रव्य, स्पर्श, गंध एवं स्वाद के सापेक्ष इन्द्रिओं के माध्यम से प्राप्त उद्दीपनों के परिणामस्वरूप मस्तिष्क में उत्पन्न होने वाले अनगिनत हानिकारक रसायनो के उत्पादन पर विराम लगता है। वर्णित ३२ मुख्य आसनो एवं प्राणायाम के नियमित अभ्यास से मांस पेशिओं की मजबूती के साथ साथ शरीर के अंग प्रत्यंग में प्राणो का आवश्यकतानुसार संचार होता है। प्राणायाम शब्द प्राण एवं आयाम से मिलकर बना है जिसका तात्पर्य प्राणो को आयाम देना है। प्रत्याहार द्वारा इन्द्रिओं को सांसारिकता से विरक्त करके मन को बाहर से खींच कर भीतर की ओर लाया जाता है। मन को भीतर ठहरा रहने को धारणा कहते है और इष्ट देव या इष्ट ध्येय में मन लगाना ध्यान है। इष्ट में मन को लीन करके अपने आप को भूल जान समाधि है।
समाधि में व्यक्ति का पूर्ण सामंजस्य अखिल ब्रम्हांड से हो जाता है।
इस सामंजस्यता के परिणामस्वरूप व्यक्ति की ऊर्जा एवं ब्रह्माण्डीय ऊर्जा आपस में लयवद्ध एवं एकाकार होकर व्यक्ति को असीम ऊर्जा, चेतना एवं आनंद की अनुभूति प्राप्त होती है। यह केवल और केवल योग द्वारा ही संभव है। हमारे ऊर्जा चक्र शनैः शनैः योग अभ्यास से सक्रिय होते है और हमको योग की अंतिम परिणित अर्थात समाधि तक पहुंचाते है।