परम
आदरणीय महामहिम श्री राज्यपाल महोदय, परम आदरणीय श्री कुलपति महोदय एवं मंचासीन महानुभाव, पधारे हुए समस्त विद्वत-जन, योग-प्रेमी एवं समारोह के आयोजकगण, सर्वप्रथम मैं माँ सरस्वती को नमन करते
हुए आप सभी को अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस की बधाई देता हूँ। आज का दिन सम्पूर्ण
विश्व एवं मानवता के लिए महत्वपूर्ण है क्योंकि सम्पूर्ण विश्व आज इस बात की चर्चा
कर रहा है कि योग क्या है और वर्तमान में इसकी क्या आवश्यकता और उपयोगिता है। मैं
मुख्य अतिथि का आभारी हूँ कि उन्होंने अपना बहुमूल्य समय देकर हम सभी को उपकृत
किया है।
आज के संसार में मनुष्य, जीव – जंतु
यहाँ तक कि प्रकृति भी उद्वेलित है, अशांत है। प्रायः किसी को भी शांति नहीं है।
विश्व पटल पर काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार के वशीभूत इंसान हिंसक हो उठा है।
मार-काट, चोरी-डकैती, हेरा-फेरी, व्यभिचार अब आम बात हो गयी है। धैर्य, दया, करुणा,
क्षमा जैसी सदाचार की बातें मानो भुला दी गयी हैं। मुट्ठी भर विद्वान और जागरूक
लोग छटपटा रहे हैं - शांति की खोज में। संसार को यदि इसका समाधान चाहिए तो वह केवल
‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ का संदेश देने वाला भारत ही दे सकता है। हम हवन के समय समग्र
जड़ – चेतन, पृथ्वी – आकाश आदि सभी की शांति की प्रार्थना करते है, यहाँ तक कि मृत्यु
पर जीव की आत्मा की शांति के लिए हर व्यक्ति के हृदय से प्रार्थना स्फुटित होती
है। इस विषम परिस्थिति में भारत का ‘योग दर्शन’ संसार को शांति और सद्भाव प्रदान
करने की शक्ति रखता है।
विषय पर सीधे आते हुए- ‘योग क्या है’
जिसकी चर्चा सम्पूर्ण विश्व में हो रही है, यह जानना आवश्यक है। कुछ लोग शरीर को
विभिन्न प्रकार से तोड़ने-मरोड़ने को योग कहते है। कुछ लोग श्वास-प्रश्वास को बहुत
देर तक रोकने को योग कहते है। कुछ लोग आँखे बंद करके स्थिर बैठने को योग कहते है।
यदि ऐसा होता तो सभी जिमनास्ट जो शरीर को कुशलतापूर्वक तोड़-मरोड़ लेते हैं, उनसे
अच्छा योगी कौन हो सकता है? लम्बे समय तक श्वास को रोकना ही यदि योग होता तो जितने
भी नाविक और तैराक हैं वे सब योगी हो गए होते। मात्र आंखे बंद करके बैठने से योगी
बन जाना सबसे आसान तरीका होता। वस्तुतः वर्तमान में योग को बहुत हल्के तरीके से
प्रस्तुत किया जा रहा है। विशेष तौर पर अमेरिका और यूरोप में जहाँ इसे कतिपय आसन,
प्राणायाम एवं शारीरिक व्यायाम (Physical Exercise)
तक ही सीमित कर दिया गया है; जबकि योग भारतीय ‘षडदर्शन’ जो कि वेदों के अंग कहे गए
है, उनमें से एक अंग है, दर्शन है। योग-दर्शन के अतिरिक्त अन्य पांच वेदांग
हैं – सांख्य, न्याय, वैशेषिक, पूर्व
मीमांसा एवं उत्तर मीमांसा। इन दर्शनों पर ही मूल भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता
आधारित है। योग भी अन्य वेदांगो की भांति अत्यंत विस्तृत, तार्किक, सारगर्भित एवं
उत्कृष्ट चेतना का निचोड़ है।
योग का शाब्दिक अर्थ है – जुड़ाव – दो या
दो से अधिक वस्तुओं का, या अवधारणाओं का आपस में मिलना या जुड़ना। योग वास्तव में
शरीर, मन एवं आत्मा का जुड़ाव है –
unification of body,
mind and soul. यह जुड़ाव चित्त की वृत्तियों के निरोध से संभव
है – योगश्चित्तवृत्तिनिरोध: - अर्थात चित्त की वृत्तिओं का निरोध ही योग है – unification of body, mind and soul by
cessation of movements in consciousness.
चित्त की पांच अवस्थाये होती है तथा वृत्तियाँ भी पांच प्रकार की होती है। इस
प्रकार चित्त की वृत्तिओं का निरोध करके हम मन शरीर एवं आत्मा का एकीकरण कर लेते
है जो योग कहलाता है।
चित्त की इन वृत्तिओं का
निरोध किस प्रकार से हो इसके लिए महर्षि पतंजलि ने आठ पदों – appendages
–
यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारण, ध्यान व समाधि- वाले अष्टांग योग का
प्रतिपादन किया। मैं योग के इन आठ अंगों की संक्षिप्त चर्चा करना चाहूँगा:-
पहला,
यम
– यम पांच होते है – सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह एवं ब्रह्मचर्य।
दूसरा,
नियम
– नियम भी पांच होते है – शौच, संतोष, स्वाध्याय, तप एवं ईश्वर प्रणिधान।
तीसरा,
आसन
– आसनों की संख्या संसार में पाए जाने वाले जीव जंतुओं के बराबर है, परन्तु 84 आसन मुख्य
है और उनमें 32 आसनों का
प्रतिदिन नियमित अभ्यास करना चाहिए। प्रत्येक आसन शरीर के विशिष्ट भाग पर stress डालता है; परिणामस्वरूप चित्त
उसी स्थान पर स्वत: पहुँच जाता है। जहाँ चित्त होता है प्राण वायु के माध्यम से
प्राण भी स्वत: जाता है और वह स्थान/अंग उर्जीकृत हो जाता है।
चौथा,
प्राणायाम
– यह आठ प्रकार का होता है जिससे प्राणों को आयाम – dimension – प्राप्त होता है। यह आयाम आसनों के एवं श्वास प्रश्वास
के विशिष्ट संयोग से संभव है।
पाँचवां,
प्रत्याहार
– इन्द्रियो को बाह्य संसार से विमुक्त करके विषयों से निवृत्त व निग्रह करना
प्रत्याहार है।
छठवां,
धारणा
– इसमे चित्त को किसी एक ध्येय स्थान में बांध देना, लगा देना अथवा स्थिर करना
होता है। धारणा आध्यात्मिक, आधिदैविक एवं आधिभौतिक – तीन प्रकार की होती है।
सातवां,
ध्यान –
इष्ट देव अथवा किसी वस्तु विशेष में निरंतर चिंतन को या उस पर चित्त को स्थिर करने
को अथवा धारणा क्षेत्र में चित्त वृत्ति को एकाग्र करना ध्यान है।
आठवां,
समाधि –
ध्यान ही समाधि हो जाता है जिस समय केवल ध्येय स्वरुप का ही भान रहता है और अपने
स्वरुप के भान का अभाव सा रहता है।
Surya Pranam at Indira Gandhi International Airport New Delhi |
चित्त
की वृत्तियों के निरोध के सम्बन्ध में जानने के पश्चात मन, शरीर और आत्मा के
अंतर्सम्बंधों (equation)
के बारे में जानना आवश्यक है। अद्वैत दर्शन के प्रतिपादक आदि शंकराचार्य ने जब “ब्रह्म
सत्यं जगन्मिथ्या, जीवो ब्रह्मैव नापरः” के सिद्दान्त को प्रतिपादित किया तो उनका
विरोध शुरू हो गया। यह कहा गया कि जिसे हम देख नहीं सकते तथा जो अनुभूत नहीं है
उसे कैसे सत्य माना जाय; तथा जो सामने दिखाई दे रहा है उसे असत्य मानने का आधार
क्या है। इसको तो उल्टा होना चाहिए। शंकर ने कहा कि जगत में विद्यमान समस्त जड़-चेतन
के कण-कण, यहाँ तक कि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में प्रति क्षण परिवर्तन हो रहा है, यह
अनित्य है इसीलिये इसको असत्य कहा गया है। ब्रह्म ही ध्रुव सत्य है, अटल है,
अपरिवर्तनशील है, जैसा कल था, वैसा ही आज भी है और भविष्य में भी रहेगा। हमारी
जीवात्मा इस ब्रह्म से अलग नहीं है। जीव और ब्रह्म में कोई द्वैत नहीं है। ये
अद्वैत हैं। बहुत से पाश्चात्य एवं अमेरिकी दर्शन शास्त्रियो ने अद्वैतवाद को गलत
माना। बहुत से भारतीय चिंतको ने भी
पाश्चात्य मत का समर्थन किया क्योकि उनकी धारणा के अनुसार पाश्चात्य मत गलत हो ही
नहीं सकता। मानो उन्होंने जो कहा वह ध्रुव सत्य है।
हम
अपनी इन्द्रियो से जो कुछ भी देखते है अनुभूत करते है या ब्रहमांड में जो कुछ
स्थूल दिख रहा है वह मूल रूप से कतिपय आधारभूत ऊर्जा कण - Fundamental particles – electron, proton, neutron, neutrino, fermions, muons, quarks, mesons, photons, positron, boson,
antimatter –
आदि है जो निरंतर ऊर्जा का
उत्सर्जन करते रहते है। ये सभी कण एक दूसरे से सम्बद्ध रहते हुए एक व्यवस्था के
तहत परस्पर गतिशील होकर ऊर्जा उत्सर्जित करते है तथा ये कण कभी भी आपस में स्पर्श
नहीं करते। यदि इनका आपस में किसी कारण से स्पर्श हो जाय तो बहुत बड़ी मात्रा में
ऊर्जा उत्पन्न होती है और इन कणों का अस्तित्व समाप्त हो जाता है। इन कणों का
अस्तित्व तभी तक है जब तक ये परस्पर सम्बद्ध होकर वगैर स्पर्श किये गतिशील रह कर
ऊर्जा उत्सर्जित करते रहते है। आपस में स्पर्श से इनकी गतिशीलता समाप्त हो जाती है
और उर्जा उत्पन्न करके ये स्वयं भी नष्ट हो जाते है। इस प्रकार से ब्रह्मांड में
जितनी भी स्थूल वस्तुएँ हैं वे सभी मात्र कतिपय ऊर्जा उत्सर्जित करने वाले energy particles है और ये particles कब अपना स्वरुप परिवर्तित करके
तरंगो में बदल जाय अभी तक कोई नहीं जान पाया। इसलिए ऊर्जा – तरंग शाश्वत है, मैटर
– matter नहीं। ब्रह्म
यानि ऊर्जा ही अंतिम सत्य है। जगत – यानि कि द्रव्य (matter) – जो कभी
भी अपना स्वरुप बदल कर तरंग अथवा उर्जा में बदल सकता है- कैसे सत्य हो सकता है, अर्थात् मिथ्या है।
हमारा
शरीर भी इसका अपवाद नहीं है और यह जैसा दिखता है वैसा नहीं है। यह भी कतिपय
व्यवस्थित, आधारभूत, बगैर स्पर्श किये गतिशील रहने वाले कणों का समूह मात्र है जो
निरंतर ऊर्जा उत्सर्जित करते रहते हैं। हम ब्रह्माण्ड की किसी भी वस्तु को स्पर्श
नहीं कर सकते बल्कि बगैर स्पर्श किये हुए उस पर तैरते रहते है। जिस क्षण हम
वास्तविक रूप से किसी वस्तु को स्पर्श करेंगे तो दोनों के आपस के कण मिलकर अत्यधिक
ऊर्जा उत्पन्न करके नष्ट हो जायेंगे। इस प्रकार हमारा भी विनाश हो जाएगा। इस
प्रकार आधारभूत कणों से बना हमारा शरीर सदैव ऊर्जा तरंगो का उत्सर्जन करता रहता
है।
हमारा
मन, मस्तिष्क की उपज है; जहाँ पर प्रतिक्षण जाने कितनी रासायनिक क्रियायें होने से
ऊर्जा तरंगे उत्पन्न होती रहती हैं। आज का आधुनिक विज्ञान भी इसकी खोज नहीं कर
पाया है। मस्तिष्क और मन ऊर्जा तरंगो को उत्सर्जित करके ही कार्य करते है। आत्मा
जो स्वयं में ऊर्जा है, उसके बारे में भारतीय मनीषियो ने जितना कहा है उतना किसी
अन्य विषय पर नहीं कहा गया है। आत्मा को परमात्मा अर्थात् ब्रह्म – जो स्वयं में
ऊर्जा है – के एक भाग के रूप में प्रतिपादित किया गया है।
इस
प्रकार से तीनो ऊर्जाओं का यदि एकीकरण नहीं होगा तो ये ऊर्जाये आपस में एक दूसरे
को काट कर स्वयं नष्ट हो जायेंगी। इनका आपस में लयबद्ध होकर एकीकृत – unified - होना
आवश्यक है अन्यथा ये ऊर्जा तरंगे आपस में एक दूसरे को काट कर नष्ट हो जायेगी। संगीत
में सभी वाद्यों के स्वर एक लय में होते
है। सभी में एक प्रकार से unification होता है। यदि ये वाद्ययंत्र अलग-अलग स्वर निकालने लगे तो संगीत के स्थान
पर शोर उत्पन्न होगा। इसी प्रकार शरीर, मन एवं आत्मा द्वारा उत्सर्जित ऊर्जा तरंगो
में भी लयबद्धता आवश्यक है। यह लयबद्धता – unification - केवल योग द्वारा ही संभव है। संक्षेप में योग यही है।
अभी
तक की चर्चा से स्पष्ट है कि हम ब्रह्मांड में सभी पिंडो के साथ लयबद्ध होकर ही
अस्तित्व में है। जितनी अधिक लय उतने अधिक लयबद्ध, व्यवस्थित एवं उर्जावान हम।
ऊर्जा जिसके बिना एक पत्ता तक नहीं हिल सकता।
वर्तमान
युग विरोधाभासों का युग है। अपनी तथाकथित आधुनिकता, अंधाधुंध वैज्ञानिकता एवं
मूल्यहीन विचारों से मानवता आज जितनी पीड़ित है उतनी कभी नहीं रही। हमारी ऐसी जीवन
शैली ने अनेक मानसिक-शारीरिक विकार (psycho-somatic disorders) उत्पन्न
किये है जिनका कोई सफल उपचार आधुनिक विज्ञान खोज ही नहीं पाया है। आधुनिक विश्व की
समस्यायों का मुख्य आधार व्यक्ति का लोभ, लालच, क्रोध, काम, शक्ति, मद, अहंकार आदि
है। ये सब ही क्लेश यानि कष्ट का कारक है। योग के ‘यम’ और ‘नियम’ को अंगीकृत करने
से इन मनोविकारो से मुक्ति मिल सकती है; अर्थात इन क्लेशो का उपचार योग के माध्यम
से ही संभव है। योग के मात्र प्रारंभिक अभ्यास से ही इन वृत्तियों पर नियंत्रण
पाया जा सकता है। अपने मनीषियो ने आदिकाल से ही योग को जीवन पद्धति बनाये जाने का
निर्देश इसीलिये दिया था ताकि हम सब अपने शरीर, मन एवं आत्मा के साथ लयबद्ध होकर
समस्त ब्रह्मांड के साथ एकीकृत (unified) हो सके।
योग
जीवन पद्धति इतनी प्रभावी है कि इसको कितनी ही कम गंभीरता से अपनाया जाय परिणाम
स्वतः आने लगते है। इसी कारण पश्चिम में इसका जो कथित अभ्यास कराया जा रहा है – जो
मात्र शारीरिक व्यायाम (physical exercise) से
अधिक कुछ नहीं है, उससे ही वहां का समाज काफी हद तक प्रभावित है। वस्तुतः योग
निरंतर चौबीसों घंटे अपनायी जाने वाली जीवन पद्धति है। जब कोई यह कहता है की वह
प्रतिदिन एक से डेढ़ घंटे योग करते है तो वह मात्र physical
exercise
की बात करता है। योग का तात्पर्य तो अष्टांग योग से है। क्या ‘यम’ एवं ‘नियम’ का
अनुपालन मात्र कुछ घंटो के लिए ही किया जाना चाहिए? प्राणायाम और आसन तो हमारे
चौबीसों घंटे के साथी है। हम सदैव किसी न किसी आसन पर ही बैठते है जिसके अनुसार
प्राण संचारित होकर एक विशिष्ट आयाम को प्राप्त करते है। हमारा कोई भी कार्य ध्यान
के बगैर संपन्न हो ही नहीं सकता। कार्य में यदि ध्यान नहीं तो कार्य का सम्पादन
असंभव। इस प्रकार सम्पूर्ण योग हमारी दिनचर्या में परिलक्षित होता है और यह एक
सम्पूर्ण व्यवस्थित दिनचर्या का सिद्धांत है। जितना अधिक हम इन सिद्धांतो के प्रति
प्रतिबद्ध होते है उतनी ही कुशलता से हम अपनी दिनचर्या को संचालित करते है।
वर्तमान
में जितने भी मनो-कायिक रोग (psycho-somatic ailments)
हैं; जैसे- मधुमेह, गठिया, रक्तचाप, हृदयरोग, फेफ़ड़ा, किडनी, स्टोन, लकवा, कुष्ठ,
एलर्जी इत्यादि (diabetes,
arthritis, blood pressure, cardiac trouble, pulmonary troubles, kidney
troubles, stones in gall bladder and kidney, epilepsy, allergies etc.) वे सभी योग दिनचर्या का अनुपालन न करने के कारण
ही उत्पन्न होते है और इनका उपचार केवल शरीर (soma) को
उपचारित करके किया जा रहा है जबकि इनका वास्तविक उपचार मन आधारित होना चाहिए। मन
का इलाज योग आधारित पद्धति के अतिरिक्त कहीं है ही नहीं। अतः आधुनिक सभ्यता के
कष्टों का निवारण योग से ही संभव है।
योग
जीवन पद्धति में प्राकृतिक चिकित्सा एवं योग आहार भी शामिल होता है। प्राकृतिक
चिकित्सा से शारीरिक क्षतियों का उपचार पंचभूतों के माध्यम से किया जाता है। यह
आधारभूत चिकित्सा पद्धति इतनी प्रभावी है की इससे असाध्य से असाध्य रोग भी ठीक
होते देखे गए है। यह पद्धति शरीर के किसी अंग का इलाज न करके सम्पूर्ण शरीर को
इकाई मानते हुए सम्पूर्ण शरीर का इलाज करती है। इसका मुख्य सिद्धांत यह है की शरीर
जिन तत्वों से बना है उसी से उसको उपचारित किय जा सकता है। पंचभूत से बने शरीर का
उपचार भी पंचभूत से ही होगा। इसी प्रकार हमारा आहार हमारे शरीर, चित्त एवं
वृत्तियों पर सीधा प्रभाव डालता है। कहा भी गया है की ‘जैसा खाओ अन्न वैसा होगा
मन’ यानि हमारा भोजन हमारे मन पे सीधा प्रभाव डालता है। सात्विक भोजन सात्विक
विचार, तामसिक भोजन तामसी विचार। यदि विचार तामसी होगे तो जीवन स्वतः क्लेशयुक्त
होगा।
योग एक आत्म-उन्नति की जीवन पद्धति है। हमारे
पास इसे अपनाने के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प नहीं है क्योकि आत्म-उन्नयन – self
improvement
एक सतत प्रक्रिया है। यदि
हम उन्नयन (improve) नहीं करेगे तो अवनमन (degradation) होगा क्योकि स्थायी कुछ भी नहीं है। आज इसी गिरावट
के कारण मानव इतने कष्ट, दुःख, पीड़ा, शोक, संत्रास, असुरक्षा आदि भोग रहा है।
मानवता की इस पीड़ा का मुख्य कारण योग जीवन पद्धति से भटकना है। इस जीवन पद्धति को
अपनाए बगैर मानव जीवन के कष्टों का निवारण हो ही नहीं सकता। इसी से चित्त की
वृत्तियो में परिवर्तन होता है अर्थात व्यक्ति की प्रकृति में आधारभूत परिवर्तन
होता है जिससे वह अपने को लोभ, लालच, ईर्ष्या, क्रोध, मोह, अहंकार आदि मनोविकारों
से शनैः शनैः दूर होता जाता है। विश्व आज योग के इसी आयाम को समझ कर इसे अपनाने को
प्रस्तुत है।
यम-नियम
के सिद्धांतो का पालन करते हुए यदि हम प्रतिदिन कुछ समय निकाल कर केवल कटि-स्नान,
जल-नेती एवं कतिपय आसनों के अभ्यास के साथ-साथ शंखनाद एवं ध्यान करें तो इतने से
हमारा काफी कुछ कल्याण हो सकता है। इन सारी क्रियायों में मुश्किल से एक से डेढ़
घंटे का समय लगेगा। कटि-स्नान से हमारा पाचन तंत्र पुष्ट होता है। जल-नेती से लगभग
साठ प्रकार के nasal infections की संभावना ख़त्म होती है, और शंखनाद तो स्वयं
में physical, mental and metabolic
exercise
है। ध्यान के निमित्त शंखनाद का कोई विकल्प नहीं है। इसका अभ्यास
स्वयमेव ध्यान की अवस्था में पहुंचा देता है।
परन्तु
इसके साथ हमें अपने आहार की मात्रा, गुणवत्ता
एवं आहार करने के समय को भी दृष्टिगत रखना होगा। उचित समय एवं उचित मात्रा में
सात्विक आहार आवश्यक है। आहार के द्वारा हमारा मेटाबोलिज्म एवं तदनुसार मनोवृत्तियां
नियंत्रित होती हैं। सब कुछ कर लेने के बाद भी यदि आहार नियंत्रित नहीं किया गया
तो अपेक्षित परिणाम प्राप्त नहीं हो सकते।
इस
प्रकार योग एवं उसकी आनुषंगिक क्रियायों द्वारा व्यक्ति की समग्र चेतना एवं ऊर्जा
का विकास होता है। मानव की विशेषता केवल उसकी विशिष्ट चेतना ही है। इस चेतना को
जितना अधिक विकसित किया जाएगा उतनी ही मनुष्य की विशिष्टता बढ़ती जायेगी। मानव के
सात ऊर्जा चक्रों की सक्रियता उसकी चेतना के स्तर को परिलक्षित करती है। इन चक्रों
को यदि जाग्रत कर लिया जाय तो चेतना का स्तर भी उच्चीकृत हो जाता है। योग की
प्रक्रियायें चेतना के स्तरों का उच्चीकरण करती हैं।
ध्यान
के साथ मन्त्र जाप करने से चेतना के स्तरों में अतिशीघ्र एवं आशातीत वृद्धि होती
है। मन्त्र वास्तव में ऊर्जा चक्रों को सक्रिय करने के साधन (tools)
है। जैसे ‘राम’ का जप करने से हृदय चक्र जागृत होता है, ‘कृष्ण’ का जप करने से
नाभि चक्र जागृत होता है तथा ‘सोहम्’ के उच्चारण से हृदय एवं नाभि दोनों चक्र
प्रभावित होते है। मंत्रो का जाप करने से
ऊर्जा चक्र सक्रिय होते हैं जिससे चेतना के उच्च स्तरों का विकास होता है। मंत्रो
को इस प्रकार से डिजाइन ही किया गया है कि यदि निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार उनका
अभ्यास किया जाय तो व्यक्ति की चेतना असीमित स्तर तक पहुँच सकती है; और यदि
निर्धारित प्रक्रिया न अपनाई जाय तो तत्काल नुकसान भी हो सकता है।
इस
प्रकार योग एक जीवन पद्धति है जिसका सम्बन्ध किसी धर्म, सम्प्रदाय एवं मत से न
होकर सम्पूर्ण मानवता से है। यह कहना कि यह केवल हिन्दू जीवन पद्धति अथवा Hindu Way of Life है, त्रुटिपूर्ण है। ईसाई धर्म में उपवास को
महत्व देना, इन्द्रियो का दास न बनना, ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास करना तथा
सत्कर्म करते हुए परमेश्वर में विलीन हो जाना, योग ही है। जरथोस्ती धर्म के ‘अहुर
वन’ अर्थात् ईश्वर प्राप्ति की तीन प्रक्रियायें – ज्ञान, कर्म एवं मुक्ति – की
साधना ही मनुष्य को मोक्ष का अधिकारी बनाती है। बौद्ध एवं जैन धर्म का आधार ही योग
है जहाँ पर क्लिष्ट योग को आसान बना कर जन-सामान्य को समझाया गया है। इस्लाम में
नमाज केवल आसन एवं ध्यान पर आधारित प्रार्थना पद्धति है। पाँचो वक्त का नमाजी
प्रायः रोग मुक्त रहता है। कबीर का पूरा साहित्य ही योग पर आधारित होकर जन-सामान्य
को इसे अपनाने के लिए प्रेरित करता है। योग का वर्णन करते हुए कबीर दास कहते है :-
नहीं
कुछ ग्यान ध्यान सिधि जोग, ताथैं उपजें नाना रोग।
का
बन मैं बसी भये उदास, जे मन नाही छाड़े आसा पास॥
योग
और प्राकृतिक चिकित्सा की व्याख्या अब्दुल रहीम खानखाना के निम्न दोहे से अच्छी और
कहाँ हो सकती है :-
रहिमन बहु भैषज करत व्याधि
न छाडत साथ।
खग-मृग बसत अरोग वन हरि अनाथ के नाथ॥
वन
यानि प्राकृतिक वातावरण तथा ‘हरि’ अर्थात् प्राकृतिक शक्तियां – इनके अधीन, इनके
प्रभाव में जो भी रहता है वह सदैव निरोग रहता है अन्यथा अनेक प्रकार की औषधियां
लेने एवं विभिन्न प्रकार की चिकित्सा कराने पर भी बीमारियाँ साथ नहीं छोड़ती हैं।
इस
प्रकार योग सम्पूर्ण मानवता की धरोहर है जिसका संबंध मात्र किसी विशेष धर्म अथवा
सम्प्रदाय से न होकर अखिल विश्व समुदाय से है। मनुष्य के कष्टों का निवारण एवं
कल्याण केवल और केवल योग जीवन पद्धति के अपनाने से ही संभव है। आज विश्व भारत वर्ष
के सहयोग से सही रास्ते पर चलने को आतुर है और हम सब लोग इसके गवाह बन रहे है यह
हमारा सौभाग्य है।
सभी
को बहुत – बहुत शुभ कामनाये एवं हार्दिक बधाई।
बहुत
– बहुत धन्यवाद।
- ---The
speech was delivered by me in a seminar organized by Lucknow University on International
Yoga Day – June 21st, 2015.
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