योग चिकित्सा पद्दति औषधिविहीन प्राकृतिक विधि से
शरीर को सबल बना कर रोगों का उपचार करने की प्रक्रिया है. इस पद्दति में योग,
प्राकृतिक चिकित्सा एवं योगिक आहार का समावेशन है.
योग के आठ अंग है. परन्तु चिकित्सा के
लिए यम, नियम, आसन, प्राणायाम एवं ध्यान का मुख्य रूप से प्रयोग किया जाता है. यम
एवं नियम के पालन से सायको सोमेटिक डिसऑर्डर जो मनुष्य के ८०% रोगों का कारण होते
है ठीक किये जा सकते है. आसनों के द्वारा शरीर के विभिन्न अंगो को सक्रिय करके
शारीरिक प्रक्रियायों को गतिशील किया जाता है. प्राणायाम से शरीर को संतुलित वायु
तत्व प्राप्त होता है जिससे शरीर की विभिन्न प्रक्रियाये संतुलित होकर कार्य करने
लगती है. ध्यान से मस्तिष्क एवं चित्त शांत होकर शरीर की रोगों से लड़ने की क्षमता
में वृद्धि करता है. योगिक षट्कर्म की नेति, धोती एवं बसती का प्रयोग शारीरिक शोधन
में किया जाता है.
प्राकृतिक चिकित्सा में पंच तत्वों
यथा जल, वायु, अग्नि, पृथ्वी एवं आकाश तत्वों का प्रयोग करके शरीर को रोगमुक्त
किया जाता है. इस चिकित्सा पद्दति का मुख्य सिद्दांत यह है कि जिन तत्वों से शरीर
निर्मित है, उपचार केवल उन्ही तत्वों से किया जा सकता है. कटी स्नान, मेहन स्नान,
पेट पर मिट्टी की पट्टी, पेट की ठंडी गरम सिकाई, पैर का गरम स्नान, घर्षण स्नान,
गर्म पानी का स्नान, कमर की गीली पट्टी, छाती की गीली पट्टी, धूप स्नान, उपवास आदि
प्राकृतिक चिकित्सा के उपचार की पद्दतियां है. रोगी की आयु, लिंग, शारीरिक क्षमता,
रोग की प्रकृति एवं अवधी आदि प्राकृतिक चिकित्सा पद्दतियो के प्रयोग का निर्धारण
करती है. ये प्रक्रियाये शरीर में संचित रोग कारक विजातीय द्रव्यों को शरीर से
बाहर निकालती है.
योगिक आहार का तात्पर्य यह है कि कब खाया जाय,
क्या खाया जाय, कितना खाया जाय, कैसे खाया जाय और आवश्यकता को दृष्टिगत रखते हुए
क्या विशिष्ट खाया जाय. प्रायः व्यक्ति ७०% से ८०% अनावश्यक खाता है जिसको पचाने
में शरीर की बहुमूल्य ऊर्जा का दुरुपयोग होता है. कम खा कर इस ऊर्जा को बचाया जा
सकता है जो बदले में शारीरिक क्रियायों को मजबूती प्रदान करेगी.
मधुमेह एवं आर्थराइटिस प्रायः अप्राकृतिक जीवन
पद्दतियो को अपनाए जाने के कारण मनुष्य को हो जाती है. मनुष्य के बीमार पड़ने के
मुख्य कारण है :- जरूरत से ज्यादा खाना, गलत वस्तुए खाना, बगैर भूख के खाना, बेमेल
वस्तुए खाना, बगैर चबाये खाना, आवश्यकतानुसार पानी न पीना, आवश्यक श्रम न करना,
अथवा जरूरत से ज्यादा और गलत तरीके से श्रम करना, खुली हवा और धूप का पूरा
इस्तेमाल न करना, ठीक से न नहाना, गंदी हवा एवं गंदे वातावरण में रहना और पूरी
लम्बी साँस न लेना व्यर्थ की चिंताओं एवं कार्यो में मन को परेशान रखना, शारीरिक
एवं मानसिक शक्तिओं का अपव्यय करना, नशा एवं बुरी आदतों को अपनाए रखना, आदि. ये
सभी बाते जीवन पद्दतियो से सम्बंधित है और रोग का निवारण वगैर इन आदतों के सुधारे
संभव नहीं है.
कोई भी रोग एक दिन में न तो उत्पन्न होता है और न
ही एक दिन में ठीक हो सकता है. वस्तुतः गंभीर रोग वर्षो तक गलत जीवन पद्धतियो को
अपनाए रहने, गलत दिनचर्या एवं शारीरिक मानसिक तनाव के कारण धीरे धीरे उत्पन्न होते
है. अतः इनका उपचार भी धीरे धीरे चलता है. योग उपचार में ‘यथा शक्ति’ एवं ‘शनैः –
शनैः’ के सिद्धांत का प्रयोग करते हुए धैर्य के साथ शरीर को रोगमुक्त किया जाता
है. उपचार में चिकित्सक के स्थान पर रोगी का स्वयं का योगदान अधिक होता है. इस
पद्धति में उपचार के लिए रोगी को स्वयं मानसिक रूप से तत्पर होकर अनुशासन के साथ
उपचार विधि का पालन करने के लिए तैयार रहना पड़ता है.
मधुमेह एवं आर्थराइटिस – दोनों बीमारियाँ आपस में
सम्बंधित होकर एक दूसरे को उत्पन्न करती है अर्थात मधुमेह के पश्चात आर्थराइटिस
अथवा आर्थराइटिस के पश्चात मधुमेह होना स्वाभाविक है, ऐसा चिकित्सीय शोधो से सिद्ध
किया जा चुका है. दोनों बीमारीओं के लिए अभी तक ऐसी कोई दवाई आविष्कृत नहीं हो
पायी है जो यह दावा करे की वह इन रोगों को जड़ से समाप्त कर देगी. दोनों बीमारियाँ
जीवन पद्धति से सम्बंधित है अतः जीवन पद्धतिओं में परिवर्तन करके ही इनका उपचार
किया जा सकता है. इसके लिए व्यक्ति को थोडा संयमित, अनुशासित, समयबद्ध एवं
व्यवस्थित होना पड़ता है. मानसिक दृढ़ता एवं निरंतर योग उपचार तथा परिवर्तित
प्राकृतिक जीवन शैली को अपनाए रखने से इन रोगों से न केवल मुक्ति पायी जा सकती है
बल्कि इनकी पुनरावृत्ति भी समाप्त हो सकती है.
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