संस्कृत
भारोपीय भाषा समूहों की जननी है। यह विश्व
की प्राचीनतम, सर्वाधिक समृद्ध, सशक्त एवं वैज्ञानिक भाषा है। इसकी लिपि देवनागरी
कहलाती है। इस लिपि की वर्णमाला में सात स्वर एवं तैतीस व्यंजन है। अ, इ, उ, ए, ओ, ऋ एवं लृ स्वर है। तैतीस व्यंजनों को निम्न प्रकार से वगीकृत किया गया है :-
‘क’
वर्ग – क, ख, ग, घ, ड.
‘च’
वर्ग – च, छ, ज, झ, ञ
‘ट’
वर्ग – ट, ठ, ड, ढ, ण
‘त’
वर्ग – त, थ, द, ध, न
‘प’
वर्ग – प, फ, ब, भ, म
ईषत्
स्पृष्ट – य, र, ल, व
ईषत्
विवृत – श, ष, स, ह
उपरोक्त
के अतिरिक्त अनुस्वार -- और विसर्ग : तथा अनेक संयुक्त व्यंजन जैसे क्त, क्ष, ज्ञ,
त्र, द्ध, श्र, ह्म, ह्ल, ह्न, ह्र, ह्व, ह्य, स्त्र, द्म, थ्व, दृग आदि प्रचलित है।
संस्कृत
भाषा के उच्चारण का तरीका इसकी वैज्ञानिकता का आधार है। इसमे निम्न पांच उच्चारण
स्थान है :-
कंठ
– स्वर ‘अ’ एवं क वर्ग के व्यंजनों का उच्चारण कंठ से होता है।
तालु
– स्वर ‘इ’, च वर्ग, य तथा श का उच्चारण
स्थान तालु है।
मूर्धा
– स्वर ‘ऋ’, ट वर्ग, र तथा ष का उच्चारण स्थान मूर्धा है।
दन्त
– स्वर ‘लृ’, त वर्ग, ल तथा स का उच्चारण स्थान दन्त है।
ओष्ठ
– स्वर ‘उ’, प वर्ग तथा व का उच्चारण
स्थान ओष्ठ है।
संस्कृत
भाषा के विभिन्न स्वरों एवं व्यंजनों के विशिष्ट उच्चारण स्थान होने के साथ प्रत्येक
स्वर एवं व्यंजन का उच्चारण व्यक्ति के सात ऊर्जा चक्रों में से एक या एक से अधिक
चक्रों को निम्न प्रकार से प्रभावित करके उन्हें क्रियाशील – उर्जीकृत करता है :-
· मूलाधार चक्र – स्वर ‘अ’ एवं क वर्ग
का उच्चारण मूलाधार चक्र पर प्रभाव डाल कर उसे क्रियाशील एवं सक्रिय करता है।
·
स्वर ‘इ’ तथा च वर्ग का उच्चारण
स्वाधिष्ठान चक्र को उर्जीकृत करता है।
·
स्वर ‘ऋ’ तथा ट वर्ग का उच्चारण मणिपूरक चक्र को
सक्रिय एवं उर्जीकृत करता है।
· स्वर ‘लृ’ तथा त वर्ग का उच्चारण अनाहत चक्र को
प्रभावित करके उसे उर्जीकृत एवं सक्रिय करता है।
·
स्वर ‘उ’ तथा प वर्ग का उच्चारण
विशुद्धि चक्र को प्रभावित करके उसे सक्रिय करता है।
· ईषत् स्पृष्ट
वर्ग का उच्चारण मुख्य रूप से आज्ञा चक्र एवं अन्य चक्रों को सक्रियता
प्रदान करता है।
· ईषत् विवृत वर्ग का उच्चारण मुख्य
रूप से सहस्त्राधार चक्र एवं अन्य चक्रों को सक्रिय करता है।
इस
प्रकार देवनागरी लिपि के प्रत्येक स्वर
एवं व्यंजन का उच्चारण व्यक्ति के किसी न किसी उर्जा चक्र को सक्रिय करके व्यक्ति
की चेतना के स्तर में अभिवृद्धि करता है। वस्तुतः संस्कृत भाषा का प्रत्येक शब्द इस
प्रकार से संरचित (design) किया गया है कि उसके स्वर एवं व्यंजनों के
मिश्रण (combination) का उच्चारण करने पर वह हमारे विशिष्ट ऊर्जा
चक्रों को प्रभावित करे। प्रत्येक शब्द स्वर एवं व्यंजनों की विशिष्ट संरचना है
जिसका प्रभाव व्यक्ति की चेतना पर स्पष्ट परिलक्षित होता है। इसीलिये कहा गया है
की व्यक्ति को शुद्ध उच्चारण के साथ-साथ बहुत सोच-समझ कर बोलना चाहिए। शब्दों में
शक्ति होती है जिसका दुरुपयोय एवं सदुपयोग स्वयं पर एवं दूसरे पर प्रभाव डालता है।
शब्दों के प्रयोग से ही व्यक्ति का स्वभाव, आचरण, व्यवहार एवं व्यक्तित्व
निर्धारित होता है।
उदाहरणार्थ
जब ‘राम’ शब्द का उच्चारण किया जाता है है तो हमारा अनाहत चक्र जिसे ह्रदय चक्र भी
कहते है सक्रिय होकर उर्जीकृत होता है। ‘कृष्ण’ का उच्चारण मणिपूरक चक्र – नाभि
चक्र को सक्रिय करता है। ‘सोह्म’ का उच्चारण दोनों ‘अनाहत’ एवं ‘मणिपूरक’ चक्रों
को सक्रिय करता है।
वैदिक
मंत्रो को हमारे मनीषियों ने इसी आधार पर विकसित किया है। प्रत्येक मन्त्र स्वर
एवं व्यंजनों की एक विशिष्ट संरचना है। इनका निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार शुद्ध
उच्चारण ऊर्जा चक्रों को सक्रिय करने के साथ साथ मष्तिष्क की चेतना को उच्चीकृत
करता है। उच्चीकृत चेतना के साथ व्यक्ति विशिष्टता प्राप्त कर लेता है और उसका कहा
हुआ अटल होने के साथ-साथ अवश्यम्भावी होता है। शायद आशीर्वाद एवं श्राप देने का
आधार भी यही है। संस्कृत भाषा की वैज्ञानिकता एवं सार्थकता इस तरह स्वयं सिद्ध है।
भारतीय
शास्त्रीय संगीत के सातों स्वर हमारे शरीर के सातों उर्जा चक्रों से जुड़े हुए है।
प्रत्येक का उच्चारण सम्बंधित उर्जा चक्र को क्रियाशील करता है। शास्त्रीय राग इस
प्रकार से विकसित किये गए हैं जिससे उनका उच्चारण / गायन विशिष्ट उर्जा चक्रों को
सक्रिय करके चेतना के स्तर को उच्चीकृत करे। प्रत्येक राग मनुष्य की चेतना को
विशिष्ट प्रकार से उच्चीकृत करने का सूत्र (formula)
है। इनका सही अभ्यास व्यक्ति को असीमित ऊर्जावान बना देता है।
उपर्युक्त
विवेचना से स्पष्ट है कि संस्कृत भाषा का
प्रत्येक शब्द इस प्रकार सार्थक रूप से विकसित किया गया है कि इसका उच्चारण
मनुष्य की चेतना को स्वतः एक नयी स्फूर्ति प्रदान करता रहे। यही इस भाषा की वैज्ञानिकता का मूल आधार है.
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